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निशीथभाष्य
२१५ रात्रिभोजन के दोषों को गिनाते हुए कहा है कि रात्रि में भोजन करने से मछली, बिच्छू, चींटी, पुष्प, बीज, विष और कंटक आदि भोजन में मिश्रित हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त कुत्ते, गीदड़ और मकोड़े आदि से काटे जाने तथा काँटे आदि से बांधे जाने का भय रहता है। उत्तरापथ आदि में रात्रिभोजन प्रचलित होने से साधुओं को वहाँ रात्रि में भोजन करने के लिये बाध्य होना पड़ता था । बहुत से लोग दिवाभोजन को अप्रशस्त और रात्रि भोजन को प्रशस्त समझते थे
आउं बलं च वड्ढति, पीणेति य इंदियाइ णिसिभत्तं । णेव य जिजति देहो, गुणदोसविवजओ चेव ॥
-रात्रि-भोजन से आयु और बल की वृद्धि होती है, इन्द्रियाँ पुष्ट होती हैं और शरीर जल्दी ही जीर्ण नहीं होता। दिवाभोजन के संबंध में इससे उलटा समझना चाहिये । ___ साधुओं को साध्वियों का संपर्क न करने के संबंध में छेदसूत्रों में अत्यन्त कठोर नियमों का विधान है, फिर भी, कभी उनमें प्रेमपूर्ण पत्र-व्यवहार चल जाता था
काले सिहि-णंदिकरे, मेहनिरुद्धम्मि अंबरतलम्मि। मित-मधुर-मंजुभासिणि, ते धन्ना जे पियासहिता ।।
-यह समय मयूरों को आनन्ददायी है, मेघ आकाश में छाये हुए हैं। हे मित, मधुर और मंजुभाषिणी ! जो अपनी प्रिया के समीप हैं वे धन्य हैं।
प्रत्युत्तरकोमुति णिसा य पवरा, वारियवामा यदुद्धरो मयणो । रेहति य सरयगुणा, तीसे य समागमों णस्थि ।।
१. मार्ग में चोरों के, गड्ढे में गिर पड़ने के और व्यभिचारिणी स्त्रियों के भय से बुद्ध ने भी रात्रिभोजन के त्याग का विधान किया है। देखिये मज्झिमनिकाय, लकुटिकोपम तथा कीटागिरि सुत्तन्त ।