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________________ २१४ प्राकृत साहित्य का इतिहास अपनी रक्षा के लिये, प्रतिकूल क्षेत्र में तथा नव प्रव्रजित साधु के निमित्त मृषा बोलने का विधान किया गया है | अदत्तादान के संबंध में भी यही बात है। ऐसे प्रसंग उपस्थित होने पर जइ सव्वसो अभावो, रागादीणं हवेज णिहोसो | जतणाजुतेसु तेसु, अप्पतरं होइ पच्छित्तं ।। -यदि सर्वप्रकार से राग आदि का अभाव है तो साधु निर्दोष ही रहता है। यतनापूर्वक कोई कार्य करने पर बहुत अल्प प्रायश्चित्त की आवश्यकता पड़ती है। ___उक्त कथन का समर्थन करने के लिये एक कथा दी हुई है। किसी राजा के पुत्र न होने के कारण उसे बड़ी चिंता रहती थी। मंत्री ने सलाह दी कि साधुओं को धर्मकथा के छल से अन्तःपुर में निमंत्रित कर उनसे संतानोत्पत्ति कराई जाये। पूर्व योजना के अनुसार किसी साधु को अन्तःपुर में बुलाया गया। लेकिन उसने कहा कि मैं जलती हुई अग्नि में गिर कर प्राण दे दूंगा, लेकिन अपने चिरसंचित व्रत का भंग न होने दूंगा | यह सुनकर कोपाविष्ट हो राजपुरुषों ने उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। तत्पश्चात् दूसरे साधुओं को बुलाया गया । उन्हें वह कटा हुआ सिर दिखाकर कहा गया कि यदि तुम भी हमारी आज्ञा का उल्लंघन करोगे तो यही दशा होगी। ऐसी हालत में कोई साधु प्रसन्न होकर विचार करता है कि चलो इस बहाने से स्त्री-सेवन का सुख तो मिलेगा, दूसरा भयभीत होकर सोचता है कि ऐसा न करने से मेरी भी यही गति होगी, तीसरा सोचता है कि इस तरह मरने से क्या लाभ ? जीवित रहने पर तो प्रायश्चित्त आदि द्वारा शुद्धि की जा सकती है, फिर मैं दीर्घकाल तक संयम का पालन करूँगा। 1. देखिये आचारांग (२, २, १, २९४, पृष्ठ ३३२ इत्यादि); विनयपिटक (३, पृष्ठ १३४.) में साधुओं से पुत्रोत्पत्ति कराने का उल्लेख है।
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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