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ओहनिजुत्ति केसरिका (पात्रमुखवस्त्रिका), पटल,' रजत्राण, गोच्छक, तीन प्रच्छादक (वस्त्र), रजोहरण और मुखवत्रिका। इनमें मात्रक
और चोलपट्ट मिला देने से स्थविरकल्पियों के चौदह उपकरण हो जाते हैं । उक्त बारह उपकरणों में मात्रक, कमढग, उम्गहणंतग (गुह्य अंग की रक्षा के लिये), पट्टक (उग्गहणंतग को दोनों ओर से ढकने वाला; जाँघिये की भाँति ), अद्धोरुग ( उग्गहणंतग और पट्टक के ऊपर पहने जानावाला), चलनिका (घुटनों तक आनेवाला बिना सीया वस्त्र), अभिंतरनियंसिणी (आधी जाँघों तक लटका रहनेवाला वस्त्र, वस्त्र बदलते समय साध्वियाँ इसका उपयोग करती थीं), बहिनियंसिणी (घुट्टियों तक लटका रहनेवाला; डोरी के द्वारा इसे कटि में बाँधा जाता था) नामक वस्त्र उल्लेखनीय है । इसके अलावा निन्न वस्त्र शरीर के ऊपरी भाग में पहने जाते थे-कंचुक (वक्षस्थल को ढकनेवाला वस्त्र), उक्कच्छिय (कंचुक के समान ही होता था), वेकच्छिय (कंचुक
और उक्कच्छिय दोनों को ढकनेवाला वस्त्र ), संघाड़ी, खंधकरणी (चार हाथ लंबा वस्त्र, वायु आदि से रक्षा करने के लिये पहना जाता था)। ये सब मिलाकर २५ उपकरण आर्याओं के लिये बताये गये हैं। यहाँ पात्र, दण्ड, यष्टि, चर्म, चर्मकोश, चर्मच्छेद, योगपट्टक, चिलमिली और उपानह आदि उपकरणों के धारण करने का प्रयोजन बताया है। साधु के उपकरणों में यष्टि आदि रखने का विधान है। यष्टि आत्मप्रमाण, वियष्टि अपने से चार अंगुल कम, दण्ड बाहुप्रमाण, विदण्ड काँख (कक्षा) प्रमाण और नालिका अपने प्रमाण से चार अंगुल
१. भोजन-पात्र में पुष्प आदि न गिर जाये इसलिये साधारणतया यह वस्त्र काम में आता था, लेकिन इसके अलावा उस समय जो साधु नग्न अवस्था में विहार करते थे वे इस वस्त्र को अपने लिंग को संवरण करने के काम में लेते थे-लिंगस्स संवरणे वेदोदयरक्खणे पडला ।। ७०२ ।। इस उल्लेख की ओर मुनि पुण्यविजय जी ने मेरा ध्यान आकर्षित किया है, एतदर्थ मैं आभारी हूँ। .