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१८६ प्राकृत साहित्य का इतिहास अधिक होती है। जल की थाह लेने के लिये नालिका, परदा बाँधने के लिये यष्टि, उपाश्रय के दरवाजे में लगाने के लिये (उवस्सयबारघट्टणी) वियष्टि, भिक्षा के लिये भ्रमण करते समय आठ महीने रक्षा के लिये दंड तथा वर्षाकाल में विदण्ड का उपयोग किया जाता है। तत्पश्चात् लाठियों के भेद बताते हुए एक, तीन और सात पोरी आदि वाली लाठी को शुभ तथा चार, पाँच और छह पोरी वाली लाठी को अशुभ कहा है। .
यहाँ (पृष्ठ १५२) 'चाणकए वि भणियं' कह कर निम्न अवतरण दिया गया है-"जह काइयं न वोसिरइ ततो अदोसो" (यदि मल-मूत्र का त्याग नहीं करता तो दोष नहीं है)।
पक्खियसुत्त ( पाक्षिकसूत्र ) पाक्षिकसूत्र आवश्यकसूत्र में गर्भित हो जाता है । जैनधर्म में पाँच प्रकार के प्रतिक्रमण बताये हैं :-दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक । यहाँ पाक्षिक प्रतिक्रमण को लेकर ही पक्खियसुत्त की रचना हुई है। इस हिसाब से इसे आवश्यकसूत्र का अंग समझना चाहिये। इस पर यशोदेवसूरि ने सुखविबोधा नाम की वृत्ति लिखी है।' इस सूत्र में रात्रिभोजन को मिला कर छह महाव्रतों और उनके अतिचारों का विवरण है। क्षमाश्रमणों की वन्दना की गई है। २८ उक्कालिय, ३७ कालिय तथा १२ अंगों के नामों की सूची यहाँ दी गई है।
खामणासुत्त (क्षामणासूत्र) इसे पाक्षिकक्षामणासूत्र भी कहते हैं। कोई इसे पाक्षिकसूत्र के साथ गिनते हैं, कोई अलग।
. .. .. यशोदेवसूरि की टीका सहित देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्वार, सूरत से सन् १९५१ में प्रकाशित ।