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दसवेयालिय
१७३ ने शिष्यहिता नाम की टीका लिखी है । दूसरी टीका मलयगिरि की है । माणिक्यशेखर सूरि ने नियुक्ति के ऊपर दीपिका लिखी है। हरिभद्रसूरि ने अपनी टीका में उक्त छह प्रकरणों का ३५ अध्ययनों में वर्णन किया है जिसमें अनेक प्राचीन प्राकृत और संस्कृत कथाओं का समावेश है। तिलकाचार्य ने भी आवश्यकसूत्र पर लघुवृत्ति लिखी है।
राग-द्वेष रहित समभाव को सामायिक कहते हैं। सामायिक करने वाला विचार करता है-'मैं सामायिक करता हूँ, यावजीवन सब प्रकार के सावध योग का मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से त्याग करता हूँ, उससे निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, अपने आपका परित्याग करता हूँ ।' दूसरे आवश्यक में चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन है। तीसरे में वंदन-स्तवन किया गया है। शिष्य गुरु के पास बैठकर गुरु के चरणों का स्पर्श कर उनसे क्षमा याचना करता है और उनकी सुखसाता के संबंध में प्रश्न करता है। चौथे आवश्यक में प्रतिक्रमण का उल्लेख है । प्रमावश शुभयोग से च्युत होकर, अशुभ योग को प्राप्त करने के बाद, फिर से शुभ योग को प्राप्त करने को प्रतिक्रमण कहते हैं। प्रतिक्रमण करनेवाले जीव ने यदि दस श्रमणधर्मों की विराधना की हो, किसी को कष्ट पहुँचाया हो, अथवा स्वाध्याय में प्रमाद आदि किया हो तो उसके मिथ्या होने की प्रार्थना करता है और सर्वसाधुओं को मस्तक नमा कर वंदन करता है। पाँचवें आवश्यक में वह कायोत्सर्ग-ध्यान के लिये शरीर की निश्चलता में स्थित रहना चाहता है। छठे आवश्यक में प्रत्याख्यान-सर्व सावद्य कर्मों से निवृत्ति की आवश्यकता बताई है। इसमें अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य का त्याग किया जाता है।
३ दसवेयालिय ( दशवैकालिक) काल से निवृत्त होकर विकाल में अर्थात् सन्ध्या समय में इसका अध्ययन किया जाता था, इसलिये इसे दशवैकालिक