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प्राकृत साहित्य का इतिहास कहा गया है। इसके कर्ता शय्यंभव हैं । ये पहले ब्राह्मण थे और बाद में जैनधर्म में दीक्षित हो गये | दीक्षा ग्रहण करने के बाद उनके मणग नाम का पुत्र हुआ | बड़े होने पर मणग ने अपने पिता के संबंध में जिज्ञासा प्रकट की और जब उसे पता लगा कि उन्होंने दीक्षा ले ली है तो वह उनकी खोज में निकल पड़ा। अपने पिता को खोजते-खोजते वह चंपा में पहुँचा जहाँ शय्यंभव विहार कर रहे थे। शय्यंभव को अपने दिव्य ज्ञान से पता चला कि उसका पुत्र केवल छह महीने जीवित रहनेवाला है। यह जानकर उन्होंने दस अध्ययनों में दशवैकालिक की रचना की। इस सूत्र के अन्त में दो चूलिकायें हैं जो शय्यंभव की लिखी हुई नहीं मानी जाती । भद्रबाहु के अनुसार (नियुक्ति १६-१७) दशवैकालिक का चौथा अध्ययन आत्मप्रवाद पूर्व में से, पाँचवाँ कर्मप्रवाद पूर्व में से, सातवाँ सत्यप्रवाद पूर्व में से और शेष अध्ययन प्रत्याख्यान पूर्व की तीसरी वस्तु में से लिये गये हैं। भद्रबाहु ने इस पर नियुक्ति, अगस्त्यसिंह ने चूर्णी, जिनदासगणि महत्तर ने चूर्णी और हरिभद्रसूरि ने टीका लिखी है। इस पर तिलकाचाये, सुमतिसूरि और विनयहंस आदि विद्वानों की वृत्तियाँ भी मौजूद हैं। यापनीयसंघीय अपराजितसूरि (अपर नाम विजयाचार्य) ने भी दशवकालिक पर विजयोदया टीका लिखी है जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी भगवतीआराधना की टीका में किया है । जर्मन विद्वान् वाल्टर शूबिंग ने भूमिका आदि सहित तथा लायमेन
१. सुधर्मा महावीर के गणधर थे, उनके बाद जम्बू हुए । जम्बू अन्तिम केवली थे, उनके समय से केवलज्ञान होना बन्द हो गया। जम्बूस्वामी के पश्चात् प्रभव नाम के तीसरे गणधर हुए। फिर शय्यंभव हुए, फिर यशोभद्र, संभूतिविजय, भद्रबाहु और उनके बाद स्थूलभद्र हुए। शय्यंभव की दीक्षा के लिये देखिये हरिभद्र, दशवैकालिकवृत्ति, पृ०२०-१।
२. जिनदासगणि महत्तर की चूर्णी सन् १९३३ में रतलाम से । प्रकाशित ; हरिभद्र की टीका बंबई से वि० सं० १९९९ में प्रकाशित ।