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१७२ प्राकृत साहित्य का इतिहास मुनि नहीं होता और कुश-चीवर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं कहा जाता | समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप से तपस्वी होता है। कर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और अपने कर्म से ही मनुष्य शूद्र कहा जाता है।
शेष अध्ययनों में मोक्षमार्ग, सम्यक्त्व-पराक्रम, तपोमार्ग, चारित्रविधि, लेश्या, अनगार और जीवाजीवविभक्ति आदि का वर्णन है।
२ आवस्सय (आवश्यक) आवश्यक अथवा आवस्सग (षडावश्यकसूत्र ) में नित्यकर्म के प्रतिपादक छह आवश्यक क्रियानुष्ठानों का उल्लेख है, इसलिये इसे आवश्यक कहा गया है। इसमें छह अध्याय हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान | इस पर भद्रबाहु की नियुक्ति है। नियुक्ति और भाष्य दोनों साथ छपे हैं। जिनभद्रगणि ने विशेषावश्यकभाष्य की रचना की है। आवश्यकनियुक्ति के साथ ही यह सूत्र हमें उपलब्ध होता है । इस पर जिनदासगणि महत्तर की चूर्णी है। हरिभद्रसूरि
१. जिनदासगणि महत्तर की चूर्णी १९२८ में रतलाम से प्रकाशित ; हरिभद्रसूरि की शिष्यहिता टीका सहित आगमोदय समिति, बंबई, १९१६ में प्रकाशित ; मलयगिरि की टीका आगमोदयसमिति, बंबई, १९२८ में प्रकाशित ; माणिक्यशेखर सूरि की नियुक्तिदीपिका १९३९ में सूरत से प्रकाशित । अखिल भारतीय श्वेतांबर स्थानकवासी जैनशा. स्त्रोद्धार समिति राजकोट से सन् १९५८ में हिन्दी-गुजराती अनुवाद सहित इसका एक नया संस्करण निकला है । जर्मनी के सुप्रसिद्ध विद्वान् अट लायमन ने आवश्यकसूत्र और उसकी टीकाओं आदि पर बड़ा महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इस सम्बन्ध का प्रथम भाग आवश्यक लितरेतर ( Avashyaka literatur ) नाम से हैम्बर्ग से सन् १९३४ में जर्मन भाषा में प्रकाशित हुआ है।