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११० प्राकृत साहित्य का इतिहास सित्ता तीसे कूडागारसालाए सव्वओ समन्ता घणनिचियनिरन्तरनिच्छिड्डाइं दुवारवयणाई पिहेइ | तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए ठिच्चा तं भेरि दण्डएण महया-महया सदेणं तालेजा | से नूणं पएसी, से सद्दे णं अन्तोहितो बहिया निग्गच्छइ ?"
"हन्ता निग्गच्छइ ।”
"अस्थि णं पएसी, तीसे कूडागारसालाए केइ छिड़े वा जाव राई वा जओ णं से सद्दे अन्तोहिंतो बहिया निग्गए ?"
"नो इणढे समढे ।"
“एवामेव, पएसी, जीवे वि अप्पडिहयगई पुढविं भिच्चा सिलं पव्वयं भिच्चा अन्तोहितो बहिया निग्गच्छइ । तं सद्दहाहि णं तुम, पएसी, अन्नो जीवो अन्नं सरीरं, नो तं जीवो तं सरीरं ।”
-कुमारश्रमण केशी ने राजा प्रदेशी से कहा
"प्रदेशी ! कल्पना करो कोई कूटागारशाला दोनों ओर से लिपी-पुती है, और उसके द्वार चारों ओर से बन्द हैं, जिससे उसमें वायु प्रवेश न कर सके | अब यदि कोई पुरुष भेरी और बजाने का डंडा लेकर उसके अन्दर प्रवेश करे, और प्रवेश करने के बाद द्वारों को खूब अच्छी तरह बन्द कर ले, फिर उसमें बैठकर जोर-ज़ोर से भेरी बजाये, तो क्या हे प्रदेशी! वह शब्द . बाहर सुनाई देगा ?"
"हाँ, वह शब्द बाहर सुनाई देगा।"
"क्या कूटागारशाला में कोई छिद्र है जिससे शब्द निकल कर बाहर चला जाता है ?" - "नहीं, ऐसी बात नहीं है।"
"इसी प्रकार, हे प्रदेशी ! जीव की गति कोई नहीं रोक सकता। वह पृथ्वी, शिला और पर्वत को भेदकर बाहर चला . जाता है। इसलिये तुम्हें इस बात पर विश्वास करना चाहिये कि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है, तथा जीव और शरीर एक नहीं हो सकने ।