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सूत्रकृतांग सूत्र
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भावरूपी संस्कार (२) विज्ञान - स्कन्धः - थांख, कान, नाक,
जीभ, काया और मन )
इतने पर भी ये सब वादी जोर देकर कहते हैं कि, "गृहस्थ वानप्रस्थ या सन्यासी जो हमारे सिद्धान्त की शरण लेगा, वह, दुःखों से छूट जावेगा ।" [१]
मैं तुझे कहता हूं कि इन वादियों को सत्य ज्ञान का पता नहीं है और न उन्हें धर्म का भान ही है । श्रतएव वे इस संसार सागर को पार नहीं कर सकते; और जरा-मरण-व्याधिपूर्ण संसारचक्र में डोलते हुए दुःख भोगते ही रहते हैं । ज्ञातपुत्र जिनेश्वर महावीर ने कहा है कि वे सब लोग ऊंच-नीच योनियों में भटकते हुए अनेक वार जन्म लेंगे और मरेंगे । [२०-२१]
(२)
कितने ही दूसरे जानने योग्य मिथ्या वाद तुझे कहता हूं । दैव को मानने वाले कुछ नियतिवादी कहते हैं, "जीव हैं, उन्हें सुखदुःख का अनुभव होता है, तथा वे अन्त में अपने स्थान से नाश को प्राप्त होते हैं। इसको सब मान लेंगे। जो सुख-दुःखाधिक हैं, वे जीव के स्वयं के किये हुए नहीं हैं - ये तो दैवनियत हैं । " इस प्रकार ऐसी बातें कह कर वे अपने को पंडित मान कर दूसरी अनेक धृष्ट कल्पनाएं करते हैं; और उनके अनुसार उन्मार्गी श्राचरण करके, दुःखों से छूट ही नहीं सकते। इन घमंडी लोगों को इतना तक ज्ञान नहीं है कि सुख-दुःखमे दैव की भांति पुरुषार्थ भी सम्मिलित होता है । [१-१]
टिप्पणी-पूर्व कृत शुभाशुभ कर्मों का उदय देव (भाग्य) होता है; पर पुरुषार्थ से नवीन कर्म करके उन शुभाशुभ कर्मों का उदय