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________________ 'व्याख्यान-पाँचवाँ .. -- "समकित दृष्टि जीवड़ों करे कुटुंब प्रतिपाल । अन्तरथी न्यारो रहे जेम धाव खिलावत वाल ॥" - अर्थात् समकिती आत्मा संसारमें रचतापचता नहीं है। अगर भरनिद्रामें कोई उससे पूछे कि संसार कैसा? तो समकिती कहेगा कि छोड़ने जैसा है। अर्थात् संसार - त्याग करने लायक है। . . . . . . . .. . . .. पैसा कैसे ? तो कहेगा कि कंकर जैसे। संयम कैसा ? तो कहेगा कि लेने जैसा। क्यों लेते नहीं हो? तो कहेगा. कि फंस गया हूँ और कव फांल या सामण में से निकलूं एसा ही मनमें विचार आता ही रहता है। तुम्हारी आत्मा को तुम स्वयं पूछ लेना कि तुममें ये संस्कार आये हैं ? . साधु महाराज पडिलेहण यानी प्रतिलेखना करते करते अगर बात करें तो छः कायजीवों के विरोधक वनते हैं। साधु तो ईर्या समितिपूर्वक ही चलनेवाले होते हैं। . प्रथम व्रतका पालन करनेवाला भो श्रावक किसीकी हिंसा नहीं करता है। उपयोगपूर्वक चलता है, उपयोगपूर्वक .बोलता है. तथा उपयोग पूर्वक ही खाता है, पीता है, वस्तु लेता है, रखता है, फेंकता है अगर उपयोग रखते हुए अकस्मात कोई जीव मर जाय तो अल्प कर्म बन्ध होता है। क्योंकि वहां अध्यवसाय हिंसा नहीं होती है वहां अध्यवसाय निर्दयता नहीं होती है। उपयोग शून्य होनेवाली प्रवृत्ति में हिंसा न भी हो फिर भी अध्यवसाय अहिंसा का उपेक्षक होनेसे हिला का पापं लगता है। ऐठा-जूठा पात्र अगर साफ किये विना रक्खा जाय ...' तो उसमें ४८ अड़तालीस मिनटके बाद असंख्जात संमूछिम . जीवोंकी उत्पत्ति हो जाती है और उनका आयुष्य अन्त
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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