SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४ प्रवचनसार-कर्णिका है तो वह पुरुषार्थ ही है। भाग्यके भरोसे बैठकर पुरुषार्थ रहित वनकर रहनेका उपदेश जैन सिद्धान्त में नहीं है । व्यवहार के कामों में भवितव्यता के भरोसे नहीं बैठ करके पुरुषार्थ करना है। घरवार छोड़कर के दूर दूर देशावर कमाने के लिये जाना है। लेकिन धर्मकार्य करने में अवितव्यता के उपादान का बहाना लेकर वैठ करके । उपादान की बातें करना है इसका नाम दक्ष नहीं तो दूसरा क्या कहा जा सकता है ? पांच समवाय कारणोंमें से एकका भी अपलाप करनेवाला मिथ्यात्वो कहलाता है। महान पुण्य का उदय होता है तभी आर्य देश, जैन कुल में जन्म, वीतराग भाषित धर्म और गीतार्थ गुरु का योग मिलता है । जहां धर्मकी आराधना तपश्चर्या और सुसंस्कारों का पोपण मिलता है। समकिती आत्मा सुखमें छलकाता नहीं है और दुख में घबराता नहीं है । भव में आनन्द माननेवाला भवाभिनन्दी कहलाता है। अनामिका नामके आचार्य महाराज तुस्विका नदी को पार कर रहे थे । तव पूर्वभव का वैरी पसा कोई देव आकर के आचार्य महाराज को भाला से घायल कर देता है। उस समय भी आचार्य महाराज विचार करते हैं कि मेरे शरीर में ले निकलता हुआ स्खन अगर पानी में गिरेगा . तो पानी के एकेन्द्रियादि जीव मर जायेंगे । इन आचार्य महाराज को अपने शरीर की पीडा की परवाह नहीं थी। किन्तु ये तो आत्मा के पुजारी थे। ... समकिती आत्मा संसार में रहने पर भी संसार को बुरा मानता है। पराया मानता है। और दुःखकर मानता है। इसीलिये ही कहा है कि:-::...... .
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy