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व्याख्यान पाँचवाँ समालोचना करेंगे। इस तरहसे तो कहीं दीक्षा ली जाती ...
है। मृत्यु होने के दिन ही कहीं दीक्षा ली जाती है ?... - व्यवहार भी देखना चाहिये, लेकिन भाग्यशालीयो, यह
सव व्यवहार खोटा है। इस तरहके व्यवहार छोड़े जायेंगे. तभी आराधना होगी। शोक पालनेका व्यवहार तो खाने पीने और मौजमजा उड़ाने में संभालना चाहिये, तप अथवा ... त्यागमें नहीं। यह बात अगर समझ में आती है तभी . . धर्म की समझ आ गई एसा माना जा सकता है। .
जगत के जीव अपने कर्म के हिसाब से सुख दुःख पाते हैं। कर्मवन्धन के अमुक काल बीत जाने के बाद कर्म उदयमें आते हैं । वन्ध होने के बाद और उदयकाल
के पहले के कालको आवाधाकाल कहते हैं। .... अज्ञानी, कर्मवन्ध के समय ख्याल नहीं करते उदय
काल में रोना रोते हैं, कंगाल बनते हैं । लेकिन ज्ञानी पुरुप उदयकाल को नहीं प्राप्त हुये कर्म को भी उदीरणा . स्वरूप में उदय में लाकर के हर्षोल्लास पूर्वक उन कर्मों को - वंद कर त्याग करके उनका अन्त लादेते हैं । मतलब कि उन कर्मोका नाश कर डालते हैं ।
.. इस जगत में कोई किसी को सुख अथवा दुख देता ___ नहीं है। सुख दुख की प्राप्ति तो अपने अपने कर्मों के
आधीन है। दूसरे तो सिर्फ निमित्त हैं । एसा समझ करके शानी पुरुप दुखप्राप्ति के निमित्तों के प्रति द्वेष नहीं करते किन्तु अपने द्वारा वांधे हुये कर्म के ऊपर द्वेष करते हैं। . किसी भी कार्य की उत्पत्ति काल स्वभाव, पुरुषार्थ ... तथा पूर्वकृत और नियति इन पांच समवायकारणों के मिलने से होती है। फिर भी अगर जीवको कुछ करना :