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व्याख्यान-पाँचवाँ :
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चिन्ता तो उनका संयम ही करता है। संयम हरेक सामग्री की अनुकूलता कर देता है। फिर भी आश्चर्य है कि एक टुकड़ा रोटी की भीख मागनेवाले भिखारी को संयम
की वात . अच्छी नहीं लगती यह मोहनीय 'कर्म की । प्रबलता ही है। . .. . इच्छा के विना सहन किये गये दुख में अकाम निर्जरा होती है। और इच्छा सहित समभाव से सहन किये गये दुखमें जो निर्जरा होती है वह सकाम निर्जरा है। निर्जरा का मतलब है कर्म का खिर जाना, झर जाना और निर्जरित हो जाना । अकाम निर्जरा में निर्जरा कम और आवक अधिक । सकाम निर्जरा में कर्मों के जाने का प्रमाण अधिक होता है । इच्छा सहित परन्तु मिथ्यात्व भाव से सहन किये गये दुखमें जो निर्जरा होती है वह निर्जरा भी अकाम निर्जरा है। इच्छा के विना जो ब्रह्मचर्य का पालन होता
है वहां जो निर्जरा होती है उसे अकाम निर्जरा कहते है। ... एक समय के संभोग में नौलाख पंचेन्द्रिय जीवोंकी हिंसा
होती है । लोच कराना चाह्य तप है। बहुत से श्रावक भी अभ्यास के लिये लोव कराते हैं। - साधु और श्रावक को खुले शरीर से ही प्रतिक्रमण करना चाहिये। साध्वीजी को खुले सिर प्रतिक्रमण करना चाहिये। . जो आदमी शक्ति होने पर भी बैठे बैठे ही क्रिया करता है और ज्यों त्यों क्रिया करता है तो क्रिया का
अनादर होता है। और क्रिया का अनादर करने से कर्म. चन्ध होता है। . . . . . . . । स्नान तो काम का अंग है । इसीलिये साधु को तो