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________________ व्याख्यान-पहला ... रहनेवाले देव शब्द सुनकर के ही तृप्ति का अनुभव करते - हैं । और आखिरी चार देवलोक के देव तो सिर्फ इच्छा से ही सुख मानते हैं । इसलिये इनसे ऊपरके देवोंमें तो विकार हो ही नहीं सकता। . . . । अगर अपन को सुखी होना हो तो विकारों को काबू में लेना पड़ेगा। धर्मी आत्मा को ज्यों ज्यों वीतराग शासन की आराधना होती जाती है त्यों त्यों उसके विकार भी कम होते जाते हैं। काम-भोग की इच्छा को वेद कहते . हैं । पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद इस तरह वेद तीन प्रकार के होते हैं। धर्मी मनुष्यों को धम करते करते भी दुःख भोगता .. हुआ देख कर कुछ अज्ञानी मनुष्य धर्मको बदनाम करते . हैं । क्योंकि वे धर्मको नहीं जानते धर्म से अजान हैं। . वे इस वातको, इस रहस्य को नहीं जानते हैं कि धर्मा पुरुषों को धर्म करते हुए भी जो दुःख आता है वह वर्तमान धर्म करनी के फलस्वरूप नहीं आता है किन्तु वह दुःख तो पूर्वकृत पापकर्म का ही फल है। जब तक पूर्वकृत दुष्कृत्यों के उदय की समाप्ति नहीं हो जाती तब .. तक तो दुःख रहेगा हो। परन्तु समकिती आत्मा दुःखमें होने पर भी वीतराग प्रणीत धर्मको प्राप्तिमें गौरव मानः .., करके आनन्द का अनुभव करता है। मिथ्यात्वी आत्मा भोजन करते समय घरके वालक और स्त्रीको याद करता है। किन्तु उस मिथ्यात्वी को साधु अथवा साधर्मी याद .. .. नहीं आते हैं ..... . ... . भावश्रावक जव बाजार में जाता है तो खाली जेव - जाता है। अर्थात् साथमें एक पैसा भी नहीं ले जाता है।
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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