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व्याख्यान पहला
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संवेग-मोक्षको इच्छा (३) निर्वेद-संसारसे वैराग्य (४) द्रव्य ओर भावसे दया (५) आस्तिकता-श्री वीतराग प्रभु के वचनों में दृढ़ श्रद्धा । .. - कंचन-कामिनी के त्यागी पंच महाव्रतधारी सुसाधु धर्मी कहलाते हैं । वारह व्रतोंमें से थोड़े बहुत व्रतों को धारण करनेवाले धर्माधर्मी कहलाते हैं । संसार में रहने पर भी जिसने समकित की दीक्षा ली है वह समकित दीक्षित कहलाता है। सर्व विरती रूप दीक्षा तो सिंह जैसे शूरवीर लोग ही कर सकते हैं । अर्थात् सर्वविरती रूप दीक्षा तो वहादुर पुरुष ही ले सकते हैं। जिनमें सम्यग्दर्शन नहीं होता उनका नंम्बर तो संघमें भी नहीं आ सकता है।
धनको लात मारे तभी मोक्ष मिल सकता है। अगर ... पुण्य में नहीं हो तो धन भी नहीं मिलता है। एसा समझ करके. सम्यक्त्वी आत्मा धन की चिन्ता नहीं करके मोक्ष की चिन्ता करता है। करोड़पति सम्यक्त्वी जवं धर्मस्थान में आता है तव पैसाका, धनका घमंड दूर करके ही आता है। इसी तरह गरीव सम्यक्त्वी भी गरीवी के रोना छोड़ कर ही धर्मस्थान में आता है। कारण कि दोनों को धर्म
की खुमारी है, धर्मकी लगन है। जिसको धर्मकी खुमारी - है वही धर्मी हो सकता है। . .. .
- वीतरागदेव को ही सच्चा देव सुदेव तरीके मानना, : पंचमहाव्रतधारी साधुको ही सच्चा साधु यानी सुसाधु मानना, और केवलीप्रणीतः धर्मको ही सच्चा धर्म यानी सुधर्म मानना ही सम्यग्दर्शन है । देशविरति का मूल नींव भी सम्यग्दर्शन ही है। ... .. . ......