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________________ ३०६ प्रवचनसार कर्णिका करके आत्मा में जमगये चार घाती कोका चूरे चूरा उड गये । वांस के दोरडे पर ही इलाची को केवल ज्ञान हुआ । केवली वने। इसीलिये कहा है कि "भावना भवनाशिनी" । इस वाक्य को इलाचीने यहां लफल किया। न जाने क्या हुआ ! जैसे विजली का करन्ट लगते ही दूसरा भी जल जाता है इसी तरह इलाचो के भावना रूप करन्ट नीचे बैठे हुए राजा रानी और नट कन्या को भी स्पर्श कर गया । इलाची के साथ ये तीनों केवल ज्ञानी वने । इन तीनों के घाती कर्म भी जलके खाक हो गये । जडसूल से हमेशा के लिय नाश हो गय । इन तीनो की एकागृता किसी भी रूप में हो मगर दोरडा पर नृत्य करते इलायची के प्रति थी। जिससे "इलिका नमर" न्याय के अनुसार वे केवल ज्ञानी बने । भावना अच्छी हो तो विश्वमें कुछ भी अशक्य नहीं है। भावनाके वलसे मनुष्य धारा हुआ काम कर लेता है। . एक सुखी श्रीमंत के यहां एक सामान्य स्थिति का नौकरी करता था । वह रोज नवकारसी करता, पूजा करता था, शामको चोविहार करता था। यह देखके सुखी शेठ उससे कहने लगा कि अरे! तू तो धर्मघेला (धर्मपागल) वना हैं। ये शब्द बोलनेवाले शेठको यह खबर नहीं कि मुझे परभवमें इसका क्या असर होगा? . धर्म विरुद्ध वातें करने से धर्मकी मश्करी करने से धर्मी.की भी मजाक करनेसे भवान्तर में दुःखी होता है। जीभ भी मिलती नहीं है। मिलती है तो तोतला वोवड़ा होता है। धर्मकी रोज अच्छी वातें सुनने पर भी धर्म
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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