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________________ व्याख्यान - इक्कीसव २४७ अपना मुंह बताने लायक नहीं हूँ । उनकी मेरे ऊपर की अपार ममता को मैं नहीं पहचान सका जिससे मुझे देश पार जाना पड़ा । अव मेरी इच्छा उनके पास जाने की नहीं है । मित्र ! गई वात अव भूल जाना चाहिए। तेरे जीवन में अब बहुत परिवर्तन आ गया है । तेरे दो तेजस्वी पुत्र हैं । तेरी बहन सुन्रीका भी वाग्दान हो गया है ये सब समाचार सुनके वे और उनके प्रजाजन अति आनन्द अनुभवेंगे इसीलिये मैं समाचार देनेको आदमी भेजता हूं । मौन रीतसे भी वकचुल की अनुमति मिलने के बाद दूसरे दिन एक दूतको संदेशा लिखके मालवं पतिने रवाना किया । एक महीना का सतत प्रवास करके दूत ढीपुरी नगरी में पहुंच गया । ! मालवपति का सन्देशा महाराजा विमलयश के कर कमलमें रक्खा । विमलयश राजाने पत्र खोलके मालवपति का संदेशा वांचा । शन्देशा पत्रको वांचते वांचते विमलयश राजा रो पड़े । सभामें सन्नाटा छा गया। दूसरी वार, तीसरी बार इस तरह फिर फिरसे तीन वक्त राजाने पत्र चांचा | उसके बाद महामंत्री के हाथमें पत्र रखते हुए महाराजा वोले मन्त्रीश्वर ! पुष्पचुलको देशनिकाल करके मैंने बड़ी भारी भूल की। मानवी को एक वक्त तो भूल की क्षमा देनी ही चाहिए तभी उसको सुधरने का मौकां मिल सकता है । देखो ! यह संदेशा मालवपतिने भेजा है। मेरा पुष्पचुल उज्जयिनी में है । वह मालवपति को अति 'प्रिय हो गया है। महामन्त्री संदेशा वांच गए वांचते वांचते महामन्त्री की छाती भी भर आई । आंख से आंसू :
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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