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________________ २४६ प्रवचनसार कर्णिका हां महाराज ! उन नियमों के प्रताप से तो मैं अनेक वार बच गया हूं । लचमुच में आपने तो मेरे ऊपर महान उपकार किया है । आपका उपकार जीवनभर भूला जा सके एसा नहीं है । आपने मेरे जीवन में जो अमृत रेडा है (वहाया है) उसी अमृतपान से मैं जीवन जी रहा हूं । अव दूसरा कुछ सेरे करने लायक हो तो फरमाओ । महानुभाव ! विश्व के महान उपकारी श्री जिनेश्वर देव की पूजा नित्य करनी चाहिये । भगवन्त की पूजा करने से सकल विघ्नों का नाश होता है | दुख दारिद्र टल जाते हैं | मनोवांछित फलते हैं । गुरुदेव आज से हररोज जिन पूजा करूंगा | पूजा किये बिना जीमूंगा नहीं । वकचुलने गुरुदेव का उपदेश झील लिया (स्वीकार कर लिया) । और प्रतिज्ञा कराने को विनती की | आचार्य महाराजने प्रसन्न चित्त से प्रतिज्ञा दे दी । दूसरी भी बहुतसी धर्म की बातें कहीं। : नमस्कार करके वैकचुल भवनमें आया । सूरिदेव एक महीना तक उज्जयिनी में रुके । वंकचुल रोज देशना सुनने को जाता था । गुरुदेव के उपदेश से वंचुल के जीवन में खूब परिवर्तन आ गया । F एक सामको मालवपति और वंकचुल नौकाविहार के लिए निकल पड़े । नाविक नौकाको मन्द मन्द गति से चला रहे थे। सागरकी मस्त लहरें हृदयको भी खूब हचमचादें इस तरह से उछल रही थीं । मालबपतिने एक बात की शुरूआत की । मित्र ! तेरे पिताश्रीको सब समाचार भेजना चाहिए । वंकल ने कहा कि महाराज ! मैं अपने पिताको
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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