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________________ - - - व्याख्यान-इक्कीसवाँ २४५ उज्उयिनी पीछे आ गया। एक विशाल भवनमें बंकखुलने उतारा किया। मालवपति वंशचुल के इशारे से चलने लगे। कोई भी काम वंकचुल से पूछे विना करते ही नहीं थे। एसा द्रढ निश्चय मालवपतिने कर लिया था। इस तरह वंकचुल राज्य का जनरल सेनापति तरीके काम बजाता हुआ मालवाधिपति को अति प्रिय हो गया था। और जीवन व्यतीत कर रहा था। . एक समय उज्जयिनी में एक आचार्य महाराज पधारे । नगर के नर नारी आचार्य महाराज की देशना सुनने जा रहे थे। झरोखा में बैठे वंकचुलने रास्ते में जाते आते नरनारी के टोला को देख के पूछा कि महानुभाव ! तुम . कहां जाते हो? महाराज! आज उद्यान में एक आचार्य महाराज पधारे हैं। यह सुनके उनकी देशना सुनने जाने को बंकचुल की भी इच्छा हो गई। अपने परिवार के साथ उद्यान में गये। आचार्य महाराज को देखकर ही बंकचुल चमक उठा । . . : . “ओहो! ये तो वही महात्मा हैं कि जिन्होंने सिंहपल्लीमें चातुर्मास किया था। देशना पूरी हुई। लोग विखरं गये। वंकचुल परिवार के साथ वैटा रहा। सव चले गये। चाद में बंकचुलने सूरीदेव को नमस्कार किया। . महात्मा! मुझे पहचानते हैं ? . . ... हां महानुभाव ! क्यों न पहचानें। हम तुम्हारी पल्ली में चौमासा रहे थे। विहार के समय चार नियम तुम्हें। दिये थे। वे तो याद है कि नहीं? उनका वरावर पालन किया कि नहीं? .......... .. .. ... .....
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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