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________________ व्याख्यान- इक्कीसवाँ २४१ महाराज ! मेरे कोटुम्बिक प्रश्न के लिये । मेरी छोटी वहन सुन्दरी है । उसे मेरे ऊपर अत्यन्त प्रेम होने से वह मेरे साथ ही आई है। आज वह पूर्ण यौवन अवस्था को प्राप्त हुई है । उसके लिये योग्य सम्पत्ति की जरूरत है । सम्पत्ति के विना तो कुछ भी नहीं हो सकता । इसलिये यहां चोरी करने को आया था । लेकिन चोरी नहीं हो सकी । पुष्पचूल ! तेने धनके बदले रूप की तो चोरी की है ? सच बोल | कचूल मौन रहा । राजा के दिल में वंकचूल के लिये अत्यंत मान पैदा हुआ । धन्य है इसे । अपने ऊपर रानीने खोटा आरोप लगाया फिर भी रानी का लेश मात्र भी. अवगुण नहीं कहता । इसलिये अन्त में खुद सुनी हुई : हकीकत को राजाने वकचूल के आगे खुली की । 1 कचुल ! तू जब रानीके खंडमें आया था उस समय मेरी निद्रा उड़ गई थी । मैं रानीके खंडमें आनेको निकलूं उसके पहले तो रानीके साथ तेरा वार्तालाप लव सुनने में आया । उसे सुनने से रानीके खंडमें नहीं आया । पुष्पचल ! तू निर्दोष है फिर भी आरोप को तूने अपने सिर क्यों ले लिया ? वकचुलने कहा कि मालवपति की आबरू बचाने के लिए मैंने अपनी निर्दोषता प्रगट नहीं की । महाराजाने कहा कि नहीं सुना होता तो तेरा A जैसे महापुरुष के मिलाप से मैं धन्य बना हूं । -१६ • अगर मैंने तुम्हारा वार्तालाप क्या होता ? सचमुच में तेरे
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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