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________________ - प्रवचनसार कर्णिकाः एसा कहके रानीने एकाएक चिल्लाना शुरू किया । बड़ों! दौड़ों! चोर! चोर ! एसा कहने के साथमें दरवाजा बोल दिया। इस तरफ मालवपति की नींद उड़ गई थी। रानी के बंड में से आते हुये आवाज को सुनकर मालबपति एक यान से इस वार्तालाप को अपने खंडमें सोते सोते सुद हे थे। पलंग पर बैठके एक चित्त से सुनते हुये मालव तिने विचार किया कि जिसे मैं प्रेमपात्र मानता हूं। इस्ली प्रियतमा को मेरे ऊपर प्रेम है ही कहां? वस! ख लिया। एसा होने पर भी अपनी इज्जत के लिये कुछ भी बोले विना चुप बैठे रहे । ... रानी के शब्द सुन कर उनके रोम रोम में गुस्सा व्याप्त हो गया। परन्तु मन ऊपर काबू रख के अनजान बन के रानी के खंड में आये । दूसरी तरफ चार छः रक्षक भी रानी की चिल्लाहट लुन के आ गये। दश-पन्द्रह दासियां भी दौड़ के आ गई। रानी मालवपति को रोते रोते कहने लगी कि प्रियतम । इस दुष्टने मेरी इज्जत लेने का प्रयत्न किया था । और मैं जग गई । प्रियतम । मेरी छाती घबरा रही है। . मालवपति का सत्ताधीश स्वर अच्छों अच्छों को घवरा दे एसा था । वंकल ले सहाराजा ने पूछा कि तू यहां कैसे और किस लिये आया था ? . . . : ... " .. .. वकचूलने कहा कि मेरी कला से में यहां चोरी करने आया था। और महारानी जग गई। . . . . . .
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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