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व्याख्यान-इक्कीसवाँ
२३७, सन्तोष नहीं। मेरे सन्तोष का स्वामी तू बन जा । तेरे चरण में मैं मेरा तन, मन और धन ये तीनों अर्पण करती . हूं। और इस तरह से ही मैं अपना जीवन धन्य वनाना चाहती हूं । रानीने आगे बढके दूसरे वक्त वंकचूल का. हाथ पकड़ा। . . . . प्रियतम ! तुम्हारे हाथमें जैसी उष्मा है। वैसी उष्मा आज दिन तक मैंने कहीं भी नहीं देखी । : एला कहते कहते. रानी वंकल को लिपट गई । वंकल जरा रोप करके रानी के हाथ में ले छटक गया।
अतृप्त नारी का क्रोध सुलग उठा । और कहने लगी कि. अब मैं तुझे आखिरी बार कहती हूं कि तू मेरी इच्छा के तावें हो जा । वंकल ने स्पस्ट इंकार कर दिया । तव सत्तावाही स्वर में रानीने कहा कि दुष्ट ! मेरा नहीं मानेगा तो परिणाम अच्छा नहीं आवेगा । परिणाम की कल्पना कर ले।
परिणाम दूसरा क्या आना था ? मृत्यु से अधिक बुरा परिणाम तो नहीं ? वंकल अडिग बनके चोला ।
महारानी के अधिक डर बताने पर बंकचूलने स्पष्ट कहा कि हे महारानी! मेरे गुरुने नियम दिया है कि राजा की महारानी के साथ विषय नहीं सेवन करना । आप तो प्रजा की माता कहलाती हैं । हम आप की प्रजा हैं.. . .
... . . . ‘रानी अधिक गुस्से होकर बोली कि तेरा नियम मुझे . नहीं सुनना । ये तो तेरा वचाव है। एसे बचाव के जाल में मैं फंसू में एसी नहीं हूं। वस! तेरी वाक्चातुरी रहने दे। तू भी मेरी आज्ञा को उल्लंघन करने का फल चख ले।