SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३६ प्रवचनसार कर्णिका काया नयन रम्य लगती थी । बंकचूल की तरफ रानी आकर्षित बन गई । जरा आगे बढके रानीने वकचूल का - हाथ पकड़ लिया । कोमल स्पर्श शरीर की उष्मा देखके रानी मुग्ध वन गई । आहा ! एसा मधुरस्पर्श जीवन में कभी भी नहीं हुआ ? पल दो पलके लिये आश्चर्य चकित बनी रानी वोली प्रियतम पलंग पर पधारो । दासी को ग्रहण करो । यौवन को सफल बनाओ । कचूल चमका ! रानी के हाथ में से हाथ छुडा के वैकचूल जरा दूर हठ गया । लहारानी, माफकरना । आपको एसा शोभा नहीं देता । आप यह क्या कह रहीं हैं ? प्रियतम, यौवन यौवनको शंखता है । यौवनका तरवराट आपको अभिनन्दन के लिये तरस रहा है । पुरुष और प्रकृति का मिलन हो यह कोई असहज नहीं है। तू चोरी करने आया है तो धन और यौवन दोनों की चोरी करता जा । महारानी ! आप मालवपति की प्रेमपात्र हैं । इसलिये आपके रूपकी चोरी करने का अधिकार उनके सिवाय और किसी को नहीं है । तू मान जा । एसा अमूल्य मौका तुझे फिर नहीं मिलेगा । जरा विचार कर | मालवपति अव वृद्धत्व को प्राप्त हो गये। मेरे जैसी अनेक सुन्दरियों के पीछे उन्होंने अपना यौवन खर्च कर डाला है । मेरी तो खिलती जवानी है । आशा उमंग और तरबराट लेके मैं यहां आई थी लेकिन मालबपति से मुझे
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy