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________________ - - व्याख्यान-इक्कीसवाँ २३१ वंकल उस गणिका को मिलने की प्रतीक्षा कर रहा था । प्रतिक्षा के कितने ही पल मनुष्यको आकुल बना देनेवाले होते हैं। और कितने ही पल मधुर होते हैं। वंकचूल को आतुरता होने लगी । परन्तु गणिका ले मिले बिना नहीं चल सकता था। ... गणिका विचार करने लगी कि उसे मिलने के लिये एक बड़ा सार्थवाह आया है। इसलिये रूपकों श्रृंगारके जाऊं जिससे प्रथम दर्शन में ही सार्थवाह घायल हो जाय । रूप और योवन की शोभा स्वाभाविक ही है। ___ उसमें भी श्रंगार हो तो ये रूप खिले विना नहीं रहे । यौवन की अभिमान सूर्ति समान गणिका ने खंडमें प्रवेश किया। वकचूल ने खडे हो के नमस्कार किया। सिर्फ एक सामकी परवशता मानवी को भान भुला देती है। नहीं करने लायक काम करवा लेती है। इसीलिये एक समय के राजकुमार ने आज एक गणिका स्त्रीको . नमस्कार किया। देवीका जय हों। एसा कह के बंकचूल बैठ गया । गणिका ने देखा कि सार्थवाह सशक्त है । यौवन खिला है । काया मस्त है। जो इस सार्थवाह का योग हो जाय तो वर्षों की अतृप्ती पूरी हो जाय । .. प्रथम दर्शन में ही गणिका घायल हो गई। शेठको पूछने लगी कि कहांसे पधारते हो. ? प्रत्युत्तर में वंकचूल ने कहा कि कलिंग देश से आता हूं। व्यापार के लिये निकला हूं। उज्जयिनी व्यापार का धाम होने से यहां आते हुये निकलते मार्ग में आपके खूब बखाण सुने इसलिये आपके यह ही उतार किया है। .
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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