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________________ २३२ प्रवचनसार कणिका प्रसन्नता का अनुभव करती हुई गणिका बोली । मैं धन्य वन गई । कलिंग की साडियां खूब खणाती है आप लाये तो होंगे ? हां देवी ! आवती काल आपकी सेवायें रखलंगा । आपको कोई तकलीफ तो मेरे भवन में नहीं हुई ? ना देवी | आपकी मीठी नजर हो वहां तकलीफ कैसी ? देवी ! आपको अवस्था खूब छोटी लगती है । ना ना एसा तो नहीं है । किन्तु काया का जतन करने से यौवन टिका रहता है | शेटजी अभी तक मेरे पास बहुत पुरुष आये किन्तु आपकी जैसी सशक्त काया किसी की नहीं देखी । मैं आज धन्य वन गई हूं । दूसरी भी कितनी ही बातें करके दोनों अलग हुए । परन्तु दोनोंके अन्तर में मिलनके छिपे भाव खेलने लगे । यहाँ रहके एक सप्ताह में वकचूलने यहाँ की सब माहिती जान ली और निर्णय किया कि राजभवन में चोरी करने जाने के लिए अकेले ही जाना क्योंकि रानी अपने अलंकारों की पेटी ( सन्दूक) अपने पलंग के नीचे ही रखती है । पासके रूममें मालवपति सोते हैं । मावपति अति चकोर (चौकन्ना) हैं, पराक्रम शाली हैं। उनकी सैना हरपल तैयार रहती है। दुश्मन राजा भी मालवपति के 'सामने आनेकी हिम्मत नहीं कर सकते। ऐसे मालवपति के अन्तःपुरमें चोरी करना ये कोई बच्चों के खेल नहीं है | भलभलों की छाती बैठ जाय ऐसी मालवपति की धाक है । परन्तु जोखम विनाकी चोरी ये कला नहीं कहला
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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