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________________ - - '.१७८ प्रवचनसार:कर्णिका: . : तीर्थंकरों के जैसी पुन्य प्रकृति दूसरे किसी को भी नहीं होती है। भाषा चार प्रकार की है। (१) सत्य भाषा (२) सत्यासत्य भाषा (३) निश्चित भाषा (४) व्यवहार भाषा । .... पूरा संसार परमें रमता है । जवं तक आत्मरमणता नहीं आवे तब तक कल्याण नहीं हो सकता है । देवों के चार भेद हैं :- (१) भुवन पति (२) व्यंतर ) ज्योतिषो (४) वैमानिक । संसार का रस घटे विना धर्म का रसं जगने वाला नहीं है। समकित की हाजिरी में आयुष्य का बंध हो तो वैमानिक देवलोक में जाता है। . ... .. महा निशीथ सूत्र में लिखा है कि जिन मन्दिर बनवाने वाला प्रायः बारहवें देवलोक में जाता है। देवलोक में शास्वत जिन मन्दिर हैं। उसकी पूजा देव नित्य करते हैं। ....धर्म विन्दु में लिखा है कि वालजीव बाहर के आचार . विचार को देखते हैं : “बालः पश्यति लिंगम् । वाल जीवों को सुधारने के लिये बाहर के आचार शुद्ध रखना चाहिये। अमर चंचा नाम की राजधानी में इन्द्र राज्य करते हैं। उस राजधानी का वर्णन इसलिये किया गया है कि पुन्यशाली जीव पुन्य के योग से कैसी भोग सामग्री प्राप्त करते हैं। " अष्टक प्रकरण में हरिभद्र सूरि जी महाराजा फरमाते हैं कि धन कमाना यानी कादव में हाथ डालना जैसा है। उस धन को धर्म में खर्च करना यानी विगडे हुये हाथ को धोना जैसा है। ... - ret
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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