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________________ व्याख्यान - अठारहवाँ १६१ : मगधाधिपति ने विचार किया कि जिस के पास इतनी अढलक सम्पत्ति है वह कैसी कैसी वानगी वाली रसवती जीमता होगा वह भी देखना जरूरी हैं। एसा विचार कर के उन श्रेणिक ने मम्मण शेठ की विनती का स्वीकार कर लिया । एक घटिका में भोजन के थाल हाजिर हो गये । : आये हुये थाल में बफे हुये चना और तेल की कटोरी. देखकर महाराजा चौंक पड़े शेठ से पूछने लगे कि क्या: आप पसी ही रसोई हर रोज जीमते हो ? सम्मण शेठ ने खुलासा करते हुये कहा इन दो चीजों के सिवाय दूसरा कुछ भी जो मैं जीमूं तो मैं बीमार हो जाता हूं ।. : कुछ भी चर्चा किये विना मगधाधिपति वहां से विदा हुये । राज्यभवन में आ के अपनी प्रिया महारानी चेलना से मिलने के लिये चले गये । रानी से उस कंगाल की परिस्थिति की स्पष्टता करते हुये वहां की तमाम हकीकत : का निवेदन किया । धन की भूर्च्छा में आसक्त बना वह मम्मण शेठ मर के सात व नरक गया । - देव और मानवको ज्ञानियोंने प्रायः सुखी कहा है । परन्तु असन्तोष की धधकती ज्वाला में जल कर भरथावनकर कभी भी सुखी हो सकते नहीं है । पूरी दुनिया की साहवी का ढगला उसके पास करदो फिर भी उसको सन्तोष नहीं होने से वह कभी भी आन्तरिक शान्ति नहीं प्राप्त कर सकता । इसी लिये ही ज्ञानियों ने कहा है कि " खाडी मनोरथ भट्ट तणी वणझारा रे, पूरण नुं नहि व्याम अहो मोरा नायक रे " । सुखी और दुखी दोनो आत्माओं की दया चिन्तवन कर के अरिहन्त के जीव अरिहंत बने । ३१
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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