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________________ प्रवचनसार कर्णिका - - समुद्रघात सात हैं :-(१) वेदना (२) कपाय (३) मरण () वैक्रिय (५) तैजल (६) आहारक (७) केवली । . दुखको बेठ करके वेदना सहन करना उसका नाम है लमुद्रघात । बांधे हुये कर्मों का सामना करना उसका नाम है कपाय समुद्रघात । आयुष्य कसकी उदीरणा करना उसका नाम है मरण -ससुद्धात । वैक्रिय शरीर करके कर्म खिपाये जायें उसे वैक्रिय समुद्रघात कहते हैं। इसी प्रकार तैजस :और आहारक समुद्रघात विष समझ लेना । केवलज्ञानी ज्ञानमें देखें कि चार अघातिकों में आयुकर्म सिवाय शेष तीन कर्मों की स्थिति आयुकी अपेक्षा दीर्घ हो तो उसे आयु के समान करने के लिये केवली परमात्मा जो प्रयत्न करते हैं उसे केवली समुद्रघात कहते हैं। नरक में जानेकी किसी को इच्छा नहीं है? परन्तु नरक के योग्य कर्म बन्धन के कारणों को नहीं छोड़नेवाले को नरक में जाना ही पड़ेगा। इन्द्रियों के विषय ग्रहण की अधिक से अधिक शक्ति 'दिखाते हुये शास्त्रकार महर्षि कहते हैं कि कानकी बारह योजन, चक्षु की एक लाख योजन, नासिका की नव योजन । भाषा वर्गणा के पुद्गल समग्र लोकाकाश में व्याप्त हो जाते हैं। जो मनुष्य रसना का त्याग करता है उसे विकार अल्प होता है । जो रस झरते पदार्थ खाता है.। उसे
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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