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________________ - - - - - - व्याख्यान-अठारहवाँ १५७. घोड़ाकी तरह विकार उत्पन्न होता है । अहिंसा का पालन संयम के पालन विना नहीं हो सकता है। साधु और · श्रावक दोनो को प्रतिदिन एक दिगई का त्यागी तो होना ही चाहिये। . . .. . जैसे संसार का बोझ उठाने के लिये दिनरात यत्न करना पड़ता है । उसी प्रकार धर्म करने में भी प्रयत्न करना चाहिये। . .. 'धर्म चालू होने पर भी जिसके हृदय में संसार जीवंत है पंसे को धर्मका वास्तविक लाभ प्राप्त नहीं हो सकता है। ललार का.त्याग न हो फिर भी संसार के प्रति वैराग्य भाववाले वने रहनेवालों को धर्म में कोई अपये ही आनन्द आता है। संसार में भटकने के दो स्थान हैं । घर और पेढी (दुकान)। स्थिर होने के स्थान दो हैं। देरासर (मन्दिर) और उपाश्रय । . . . . . . . . . . . . . संसार के सुखी जीव लामग्री के सद्भाव से सुखी है । और रागादि से दुखी हैं । जवकि दुखी मनुष्य रागादि से भी दुखी हैं और सामग्री के अभाव ले भी दुखी हैं। . जिस श्रावक के घरमें से किसी भी सभ्यने दीक्षा नहीं ली वह घर श्मशान के तुल्य है । एसा शास्त्रों में लिखा है। इसलिये अगर कोई अपने घरमें दीक्षित नहीं हुआ हो तो किसी को दीक्षित बनाने के लिये प्रयत्न करो।' . . भले कीतनी भी सामग्री हो फिर भी रागादि से दुखी और असन्तोषी आत्मा मम्मण शेठ की तरह दुखी ही है। ....मगध देशकी राजधानी राजगृही है। वहां श्रेणिक
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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