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________________ व्याख्यान-अठारहवाँ - - विषका प्रभाव खूब व्याप्त हो जाने से काया नीलमणि . जैसी हरी बन गई थी। अरिहंत, अरिहंत का मधुर शब्दका उच्चार महाराजा करने लगे। अति अल्प समयमें अरिहंत अरिहंत का अस्खलित उच्चारण करते करते महाराजा का असर आत्मा नश्वर देहका त्याग करके चला गया । प्रजाजन रोने लगे। पक्षी भी रोने लगे। गरीव भी आक्रन्द करने लगे। धर्मी प्रजा हतोत्साही बन गई। साधु सन्तोंने भी खूब खूब दुःख अनुभवा ।। राजाशाही ठाठसे पूरे अदवले स्मशानयात्रा निकली। विशाल चतुरंगी लेना स्मशान यात्रा में संमिलित हो के. चलने लगी । पाटण के विशाल राजमार्ग संकरे बन गए। नंगर के बाहर पवित्र भूमिमें अग्निसंस्कार हुआ। प्रजाने अपने प्रिय राजवीके अन्तिम दर्शन कर लिये। प्रजाजन हिचकियां लेकर रोते रहे। जीवदया प्रेसी महाराजा चले गये । यह है कर्म की गति ।। - कितना अच्छा समाधिमरण कहा जाय ? वह इस घटना से समझने जैसा है। इसलिये रोज अपने "जय वियराय" सूत्र द्वारा प्रभुके पास मांगते हैं कि "समाहि मरणं च वोहिलाभो।" . . . . भावश्रावक पंखा डालके हवा नहीं खाता है। वह . तो शरीर से कहता है कि हे शरीर ! तू क्यों आकुल होता हैं ? नरकादिगतियों में जरा भी हवा. नहीं मिलेगी। माता के पेटमें नव नव महीना तक “ओंधे सिर लटका वहाँ हवा कहाँ से मिली थी ? इसलिये हे शरीर ! तू हवा का शौख नहीं कर. ... ... . . . . . . . .. .
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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