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प्रवचनसार कर्णिका
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. एक समय वे आचार्य महाराज एक नगरीमें पधारे। .. उस समय चतुर्दशी के दिन उस नगरके राजा उदायी को. पोषध आराधना कराने के लिये राजाकी विनतीसे अपने विश्वासपात्र शिष्य विनयरत्न के साथ आचार्य महाराज राजभवन में पधारे। विनयरत्न को दीक्षा लिये उस समय . चारह-बारह वर्ष का लम्बा समय वात चुका था। फिर . . भी अभीतक उसे अपनी धारणामें सफलता की अनुकूलता नहीं प्राप्त हुई थी। अपनी तय की हुई योजना अमल में लाई जा सके एसे सुन्दर संयोग आज मिल जाने से विनयरत्न खूब ही हर्पित बन गया था।
सम्पूर्ण दिन राजाको धर्माराधना करा के सायंकाल प्रतिकुमण भी कराया। संथारा पोरिसी पढाई।
अंतमें स्वाध्याय करके आचार्य महाराज, विनयरत्न और उदायी राजा एक रूममें सोने लगे। पूरे दिन के परिश्रम से श्रमित वनें आचार्य महाराज और उदायीराजा निद्रादेवी की गोदमें इकदम लिपट गये।
धर्मा राधन में तदाकार वने महाराज उदायी को ये खयर नहीं थी कि आज उनकी मौत है। और वह भी एक गुप्तचर और वह भी साधु वेषमें रहे एक दुष्ट मानवी के हाथ ले। . - पसी अशुभ कल्पनो राजाने की भी नहीं थी। और करे भी क्यों?
रात्रिका अंधकार पूर्ण रीत से प्रसर गया था । निशादेवी का पूर्ण साम्राज्य जम गया था। उस समय पूर्ण बारह बजे के करीव कृत्रिम निद्रामें वश हुआ विनय रत्न उठा, ओघा को खोला । चारह बारह वर्ष जितने