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व्याख्यान-सत्रहवाँ : गुरु लेवा करने वाले शिष्यों में भी कईक गुरुद्रोही होते हैं।
... ....: ... एक राजाने नगर में ढिंढोरा पिटाया कि उदायीः ।
राजाको मारे उसे एक लक्ष सुवर्ण मुद्रा इनास । एक आदमी ने उस वीडा को झडप लिया । और करार नक्की. (पक्का) किया। अब तो उसे एक ही लगनी लगी कि... राजाको किस तरह मारना ।
उसने एक सुन्दर योजना बनाई। उस योजना के अनुसार उस आदमी ने आचार्य महाराज के पास जाके दीक्षा ली । साधुपने का उसका नाम विनय रत्न रखने में आया । "
इस विनय रत्न साधुने साधु अवस्था होने पर भी ओघा में छुपी रीत से एक छुरा रक्खा । और इस वातकी 'किसी को भी खबर नहीं हो इसकी वह निगाह रखने लगा।
. ओघा की पडिलेहण रोज करता था परन्तु छुरे का किसी को ख्याल नहीं आने देता था। अपनी दुरी इच्छा की सफलता के लिये आचार्य महाराज की सेवामें तल्लीन बन गया । गुरुकी वैयावृत्य और विनय इतनी सुन्दर रीतसे करता था कि उसकी तुलना में कोई साधु नहीं आ सकता था । आचार्य महाराज के निकलते वचन को झील लेना ये उसका कर्तव्य बन गया था । गुरु की सेवा . में जरा भी खामी न आवे इसकी वह पूरी तकेदारी रखता था .. . .. इस तरह वर्षों के वर्ष बीत जानेसे आचार्य महाराज का वह पूर्ण विश्वासपात्र बन गया । एसे उस शिष्य पर गुरुका अगाध प्रेम था । . . . . . . . . . .