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________________ व्याख्यान-पन्द्रहवाँ ११७ दो : प्रजा भी कहने लगी कि अव तो विचारे को छोड़ दो । उसे उसके पाप के सजा मिल गई। अब एसा कुकर्म कभी भी नहीं करेगा कि कबूलात से फौजदार को छोड़ दिया गया । और नौकरी से निकाल दिया। चौदहवें गुणठाणा का काल पांच हस्वाक्षर वोलो इतना है। जीव एक समय में यहां ले मोक्ष जाता है । जैसे क्षीर नीर एक एक हो जाते हैं। इसी तरह आत्मा और कर्म एक होकर के संसार खड़ा करते हैं। जव कर्म नाश होते हैं तब आत्मा परमात्मा बनता है। . संसार आधि, व्याधि और उपाधि से भरपूर है। मनकी चिन्ता, संकल्प, विकल्प यें आधि कहलाती है। शरीर में रोगादि होते हैं वह व्याधि कहलाती है। और संसारी प्रवृत्तियों का जंजाल उपाधि है। उक्त तीनों से संसार सुलग रहा है। उसका त्याग करनेवाले 'सच्चे साधु हैं । साधु चक्रवर्ती से भी अधिक सुखी होते हैं । तप दो प्रकार के हैं। (१) वाह्यतप (२) अभ्यंतर तप । बाह्य तप की अपेक्षा अभ्यन्तर तप को महिमा अधिक है। ... मन भूत के समान है। ध्वजा के समान चंचल है। उस मन को वश में करने के लिये अभ्यन्तर तप की जरूरत है। स्वाध्याय अभ्यन्तर तप है। जो साधु साध्वी स्वाध्याय में तदाकार होते हैं उनको अशुभ विचार नहीं आ सकते हैं । एसे चंचल मनको स्थिर बनाने के लिये . प्रयत्नशील बनो यही शुभेच्छा। .....
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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