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________________ व्याख्यान-तेरहवाँ: . . साध्वीजी महाराज ने उनको अपने समुदाय के आचार्य भगवान के पास भेज दिया । हरिभद्र ने वहां जाकर के दीक्षा ले ली। वुद्धि तीव्र होने से अल्प समय में ही दार्शनिक विषय के निष्णात वन गये । उनने दीक्षा लेने के बाद चौदह सौ . चवालीस ग्रन्थों की रचना की। ग्रन्थ रचना में अपने उपकारी साध्वीजी महाराज को नहीं भूलते हुये हरेक ग्रन्थ में उनने ." या किसी महत्तरा सूनु" तरीके ही उनका परिचय दिया है । जैन शासनमें ख्याति को प्राप्त हुये वे महापुरुष हरिभद्र सूरिजी के. नामसे पहचाने जाते हैं । - ससकिती आत्मा का लक्ष्य यहीं होना चाहिये कि धर्म सिवाय चक्रवर्तीपना भी मिले तो भी नहीं चाहिये। ... ढाई द्वीप में रहनेवाले संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के भाव को जान सकें उसका नाम है “मनः पर्यय ज्ञान"। ...: '. केवल ज्ञानी को पहले समय ज्ञान और दूसरे समय - दर्शनोपयोग होता है। , , . . . : . : श्रुतज्ञान पढ़नेका उद्यम करने से ज्ञानावरणीय कर्मों का भुका उड़ जाता है (नाश होजाते हैं)। ... :. : शराब के नशे में चकचूर बने हुये मानवी के सुखमें गिरता हुआ कुत्ते का भूत (श्वान भूत्र) नशा ग्रस्त को अशुचिवंत मालूम नहीं होता उसी तरह मोहनीय कर्म के नशा में चकचूर बने हुवे. मनुष्य को अच्छे और बुरे का कुछ भी मान नहीं होता है। . संसारी जीवोने मोह को मित्र माना है। जब कि अनन्त शानियोंने उसको आत्मा का कट्टर दुश्मन कहा है। चौदह पूर्व के धारक आत्माओं को भी मोह दुश्मन ने . निगोद में धकेल दिया है। ...........
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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