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________________ - ९६ प्रवचनसार-कणिका जो आत्मायें जिनागम को नित्य सुनती हैं उनके कान धन्यवाद के पात्र हैं। __ पता की अपेक्षा माता अधिक उपकारी है इसलिये माता का उपकार निरन्तर याद करना चाहिये ।। हरिभद्र नामके एक ब्राह्मण को अभिमान था कि मेरे से भी अधिक जानकार हो और जिसके अर्थ को मैं न जान सकं एसा कोई भी मिले तो उसका मैं शिप्य ' वनजाऊं। यह इनके जीवन की भी एक टेक थी। पक समय रातको फिरने को वे निकले तो साध्वीजी महाराज के उपाश्रय से पसार हो रहे थे। वहां उनके कर्णपट पर मधुर शब्द टकराये "दो चक्की दो हरीपढ में" । इस वाक्य के अर्थ को समझने में विचार मग्न उनको कुछ भी समझ में नहीं आया। विद्वत्ता का अभिमान गिल गया । खूब परिश्रम किया किन्तु व्यर्थ । क्यों कि ये तो जैनशास्त्र के पारिभाषिक शब्दथे। अब क्या करना? अपनी टेक याद आई । जल्दी से उपाश्रय की सीढियों पर चढते हुये देखातो साध्वीजी महाराज. स्वाध्याय करते हुये दिखाई दी। उनके सन्मुख जाकर के नमस्कार पूर्वक पूछते हैं कि हे महासती। आप जो स्वाध्याय कर रहीं हो उसमें बोले गये शब्दों के अर्थ का मैंने खूब विचार किया फिर भी मुझे वह समझमें नहीं - आया। मेरी प्रतिज्ञा है कि जिसका अर्थ में नहीं समझ सर्व उसका अर्थ समझाने वाले का में शिष्य बन जाऊंगा। इसलिये दया करके आप समझावो । साध्वीजी महाराज . ने तुरन्त समझा दिया । वह सुन करके हरिभद्र खूब . 'प्रसन्न हुये । शीघ्र ही शिष्य बनाने की विनती की।
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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