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________________ '९२ प्रवचनसार कर्णिका - - 'दिया। यानी भुक्का कर दिया । और दौड़ करके 'लक्ष्मणजी ने महाराजा को नीचे पछाड़ दिया । अवसर के जानकार महाराजा ने शरणागति स्वीकार ली। फिर चन्धन अवस्था में महाराजा को रामचन्द्रजी के सन्मुख हाजिर किया । रामचन्द्रजी को देखकर महाराजा घबरा गये। उनका प्रभाव जगत में फैला हुआ था । रामचन्द्रजी अब क्या करेंगे? प्राणान्त दंड करेंगे? जो होना होगा सो होगा। अब चिंता बेकार है। एसा महाराजा ने विचार कर दिया। राजसभा में आज मानव समूह माता नहीं था। स्तुति पाठकों ने स्तुतिगान शुरू किया । और राजसभा का काम काज शुरू हुभा । महाराजा शरम से नीचा मुंह करके खड़े थे। वोलने की जरा भी हिम्मत नहीं थी। रामचन्द्रजी ने उनसे “पूछा कि तुम्हारी इच्छा क्या है ? बोलो! वज्रकर्ण तुम्हें नमस्कार नहीं करेगा। कुछ भी जवाव नहीं मिला रामचन्द्रजी साधर्मिक का कर्तव्य समझाते हैं । और जैनधर्म के सम्यक्त्व स्वरूप का वर्णन करते हैं । जाओ, "तुम्हें कोई भी सजा नहीं दी जायगी। ये शब्द सुनते ही सभाजनों ने जयनाद से वातावरण गजा दिया। वोलो। श्री रामचन्द्र की जय । वोलो वज्रकर्ण महाराज की जय। सभामें पूर्णशान्ति फैल गई । रामचन्द्रजी की आज्ञा जाहिर की गई कि आजसे वनकर्ण और तुम महाराजा समान राज्य के मालिक हो । तुम दोनो समानः । जनताने फिर जयघोप किया । राजसभा विसर्जित हो गई। सब अपने -अपने स्थान को चले गये।
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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