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________________ व्याख्यान-ग्यारहवाँ. कटाक्ष करती थी । इकदम नजदीक में जाकर के मुनिको. . 'चिपक जाऊंगी पसे विचार के साथ वेश्या मंद मंद आगे चल रही थी। वहां भयंकर गर्जना हुई। खबरदार? एक 'कदम भी आगे नहीं बढाना । जो वढायेगी तो नुकशान - 'होगा। भयंकर आवाज सुनकर वेश्या रुक गई । अनेक विचार चालू हो गये । अव एक कदम भी आगे बढ़ने की हिंमत नहीं रही। साधुका क्या भरोसा। क्षण भरमें भस्म करदें तो? वेश्या विचार में पड़ गई । विचारो के जालमें अटकी हुई वेश्या एक पत्थर की तरह दीवाल से टिक कर के खडी रही। इधर मुनिवर विचार करते हैं कि सुवह मन्दिर खुलेगा । लोग मुझे और वेश्या को नजर से देखेंगे। किसी तरह के दोष के विना जैनधर्म की निन्दा होगी। इस निन्दा में से बचने के लिये क्या करना ? उत्सर्ग और अपवाद के जाननेवाले ही गीतार्थ क इलाते हैं । एसे. गीतार्थ ही अकेले विहार कर सकते थे। इन सुनिराज के मनमें एक विचार सूझा । उसका अमल भी किया। शरीर ऊपर के वस्त्र सहित तमाम ... साधुता के उपकरणों को दियाकी सहायता से जलाकर भस्म बनाई और एक लंगोटी लगाकर के पूरे शरीर में : . भस्म लगा दी। इधर राजा-रानी चर्चा कर रहे थे। राजा कहता - था कि जैन साधुओं का कोई विश्वास नहीं करना चाहिये। वे तो स्त्रियों के साथ रातवास करते हैं। रानीने कहाहे स्वामीनाथ, जैन साधु के बारेमें ऐसा कभी नहीं हो सकता है । राजाने कहा-सुवह सव वात नजर से दिखा..
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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