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________________ - - प्रवचनसार कर्णिका अज्ञान जैसा जगत में कोई रोग नहीं है। अज्ञानता पूर्वक की गई क्रिया मोक्ष प्रापक नहीं बनती है। जिन कर्मों को खिपाने के लिये अज्ञानी को करोड़ों पूर्व वर्ष लगते हैं उतने कर्मों को ज्ञानी एक श्वासोच्छवास में खिपा देता है। लग्न होने के बाद समकिती स्त्री अपने पति को कहे कि मुझे वैराग्य नहीं आया इसी लिये मैं तुम्हारे घर में आई हूँ। जव वैराग्य आयेगा तव तुम्हारा भी त्याग करने में देर नहीं करूंगी। परन्तु जब तक वैराग्य नहीं आयेगा तब तक आपकी आज्ञांकित चरणरज के रूप रह कर के पतिभक्त बनी रहूंगी। मोक्ष को ले जाने वाले ज्ञान को नहीं माने और संसार में रखडाने वाले ज्ञान को ज्ञान माने उसका नाम मिथ्यात्व है। अपने स्वार्थ के लिये तो इन्द्र भी अपनी इन्द्राणि को मनाता है। संसारी कामों में जैसा विनय है बैसा विनय जो धर्मस्थान में आजाय तो समझलो कि कल्याण नजदीक में है। तप करो तो लमता भाव रख के करो। पूजा की ढाल में कहा है कि.." तप करिये लमता राखी निज घटमां” । .. मुझे ओली चलती है (अर्थात् में ओली का व्रत करता हूं) इस लिये शक्ति घट गई है। एसा चितवन करना मन का प्रमाद है। अशक्ति अधिक है इसलिये आवश्यक क्रिया बैठ के करता हूं इसका नाम वचन प्रसाद है। मुझे थोड़े दिन के बाद तप करना है इस लिये काया को संभालता हूं इसका नाम काया का प्रमाद है।..
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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