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________________ ७० - - प्रवचनसार कर्णिका जिनकल्पी मुनि रोज लोच करते हैं। स्थविरकल्पी मुनि छः छः महीने अथवा चार चार महिने लोच. करनेवाले, होते हैं। नव गुप्ति का पालन करने से संयम अच्छी तरह ले लचचाता है। रस झरती बस्तुओं के खाने से गुप्ति का खंडन होता है। इसलिये एसी बिगड़ने वाली वस्तुओं का त्याग करना चाहिये । भूख से कम खाना उनोदरी तप कहलाता है वह छः प्रकार के वाह्य तपों में से दूसरे प्रकार का वाह्य तप है।' __घर वालों को सागार कहा जाता है। और घरवार छोड़ के साधु बननेवालों को अनगार कहा जाता है। कर्स का ध्वंस करने के लिये पश्चात्ताप ये उत्तम रसायन है । पापकर्स हो जाने के पीछे पश्चात्ताप हो तो पाप धुल जाता है। अर्जुनमाली, दृढ प्रहारी वगैरह तश्चात्ताप से ही महात्मा बने । साधु के लिये बनाया गया भोजन आधाकर्मी कहलाता है। आधाकी आहार करने से प्रायश्चित्त आता है। .. ....... पाप के चार प्रकार हैं: (१) अतिक्रस (२) व्यतिक्रम (३) अतिचार (४) अनाचार । उसमें पाप करने की इच्छा करना अतिक्रम है। पाप करने के लिये कदम उठाना व्यतिक्रम है। और वाहा - पाप करना वह अतिचार है । और पाप करके. संतोप मानना अनाचार है। . ... जो तुझमें गुण नहीं हैं, तो प्रशंसा की कांक्षा वयों.
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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