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प्रवचनसार-कणिका . जिस घरमें विलकुल धर्म नहीं होता है उस घरमें आत्मा की रामायण (चर्चा) कम और ऐहिक सुखों की रामायण अधिक होती है। जो आदमी जिनवाणी का नित्य श्रवण करता है वह पाप करते हुये अचकाता है। उसे पाप का डर रहता है। मोहनीय कर्म जब तकः नाश नहीं होता है तब तक मोक्ष नहीं मिलता है।
जीव एक भवमें नये एक भवका आयुष्य बांधता है किन्तु नये दो भवका आयुष्य नहीं बांध सकता है।
पार्श्व प्रभु के साधु और महावीर भगवान के साधु. एक समय इकठे हुये । तव पार्श्व प्रभु के साधु महावीर के साधुओं से कहते हैं कि तुम सामायिक और उसकाः फल, संयम पच्चक्खाण, संवर और काउस्लग्ग को नहीं जानते हो। यह सुनकर महावीर प्रभु के साधु जवाव देते हैं कि आत्मा समता भावमें रमे उसका नाम सामायिक । पच्चक्खाण करना उसका नाम त्याग कहलाता है। जिस आदमी ने विरति नहीं की वह आदमी अमक्ष्य वगैरह कुछ भी न खाय फिर भी वह त्यागी नहीं कहलाता है। नहीं खाने पीने पर भी आश्रव लगता है। संसार के विपयों की तरफ जा रहीं इन्द्रियों को रोकना. उसका नाम है संयम । संयम अर्थात् संवर । आश्रय के विना रोके संवर नहीं आ सकता है । काया के व्यापार का त्याग करना उसका नाम काउस्सग्ग है। ज्यों ज्यों काया को कष्ट दिया जाता है त्यों त्यों कर्म का भुक्का होता है। .. आवश्यक अर्थात् अवश्य करने लायक करनी । वहः छः प्रकार की है: