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________________ ६६ प्रवचनसार कर्णिका दूसरे के ऊपर डालने जाय तो सामनेवाला मनुष्य थोड़ा सा खिसक जाय तो उसके कपड़े नहीं विगडे किन्तु जिसने हाथमें कीचड़ लिया हो उसके विगड़ ही जानेवाले हैं। अविरतिपना संसार में रखडाने वाला है परन्तु विरतिपना संसार ले तारने वाला है। धर्म करते समय सिंहके पुरुषार्थ से करना चाहिये। जिससे धर्म की प्रशंसा हो और दूसरे भी अनुमोदना के द्वारा पुण्योपार्जन कर सकें। देव विमान शाश्वत हैं। अपने विमानों को छोड़कर दूसरों के विमानों में नहीं जा सकते हैं। साधुको जैसे उपधि कम हैं उसी तरह उपाधि भी कम हैं और संसारी को भी ज्यों ज्यों परिग्रह कम त्यों शान्ति अधिक। श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज़ फरमाते हैं कि अगर गरम घी से चुपड़ी रोटी मिल जाती है, सांधा विना (यानी विना फटा) वस्त्र मिल जाता है तो धर्मी ननुष्य को लन्तोष हो जाता है। आजकल के लोगों को पेटकी अपेक्षा पटारे की चिन्ता अधिक है। जो आदमी धर्म को प्रधान तरीके मानता है, लक्ष्मी उसीकी दासी होकर के रहती है.। . . .... . . ... ... संसार की आधि व्याधि और उपाधि रूप त्रिताप को शान्त करने वाला वीतराग प्रणीत-धर्म ही है। . चौदीस घन्टों में अधिक चिन्ता आत्मा की करते हो कि शरीर की:? जैन शासन को प्राप्त हुये आत्मा तृष्णां के त्यागी-होते हैं । : : ...................... :: संसारी पदार्थ के ऊपर :उनको मूच्र्छा नहीं होती.. है। जीभको नहीं रुचे एसा भोजन मिलने पर भी कुछ
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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