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प्रवचनसार-कर्णिका
. खुद किये हुये सुकृत्यों की प्रसिद्धि में सिर्फ वाह" प्राप्त कर सकता है। किन्तु उसले अधिक कुछ भी नहीं प्राप्त कर सकता है। . कर्म जब बलवान बनता है तब आत्मा गरीव बन जाता है। और जब आत्मा वलवान बनता है तब कर्म पांगला वन जाता है।
छमस्थ जीव चर्मचक्षु के द्वारा आत्मा को नहीं देख सकते हैं। और केवलज्ञानी तो केवल चक्षु के द्वारा आत्मा को देखते हैं । केवलज्ञानी संसार के सूक्ष्म चादर, रूपी-अरूपी सव पदार्थों को देखते हैं।
आठ द्रप्टि की सज्झाय में बताई हुई आठ द्रष्टि में से तीन द्रष्टि तक समकित नहीं होता है।।
सातवें गुणस्थानक में ऊंचा धर्मध्यान आता है। कारण कि सातवें गुणस्थानक से अप्रमत्त दशा आती है।
द्रष्टिराग ये दोप है। लेकिन गुणानुराग ये गुण है । देव, गुरु और धर्म के प्रति वर्तताराग गुणानुराग है।
अमुक साधु को वन्दवा और अमुक साधु को न हिं वन्दवा ये द्रप्टिराग कहलाता है। उसमें अतिचार लगता है। ... जो आदमी जिससे धर्म प्राप्त किया हो उसका अधिक सत्कार करे उसमें विरोध नहीं है। किन्तु दूसरे का तिरस्कार करे ये योग्य नहीं है। तुम सब द्रष्टिराग के त्यागी वनकर गुणानुराग के पुजारी बनो यही मनः कामना ।