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व्याख्यान-छहा .. करते हो। क्या तुम को एसा करना शोभता है। इसी तरहकी अनेक बातें राजाने कहना शुरू कर दी। राजा के सेवक भी दूर खड़े खड़े यह सव सुनते रहे । अव मन्त्री विचार करने लगा कि अब यह मामला तंग हो जायगा ।
और धर्मकी अवहेलना होगी। इस लिये राजासे मन्त्रीने कहा कि हे राजन, आपका पुन्योदय है कि आप को मुनियों का जूठा भोजन जीमने को मिला । आप गुस्सा नहीं करो और शान्त होजाओ। यह सुन कर राजा शान्तं हो गया। दो पहर को मन्त्रीश्वर उपाश्रय में विराजमानः आचार्य महाराज के पास गये । और कहने लगे कि साहव, आप अपने साधुओं को काबू में नहीं रखते । इस से शासन की अवहेलना होती है। एसा कह के सब वात आचार्य महाराज से कह दी । यह वात सुनकर आचार्य महाराज कहने लगे कि हे मन्त्रीश्वर, तुम्हारे घरमें वैभव का पार नहीं है। जहां जैन मतावलम्बी राजा और मन्त्री होते हुये भी जैन मुनि को भिक्षा नहीं मिले इसमें आपकी और राजाकी शोभा है ? तुमने साधुओं की
खबर नही रक्खी इसी लिये हमारे साधुओं ने भूल की। ... इस लिये यह हमारी नहीं किन्तु तुम्हारी भूल है।
मन्त्रीने अपनी भूल कबूल करके गुरु महाराज से माफी मांगी। मन्त्रीके चले जानेके वाद आचार्य महाराज में दोनों साधुओं को बुलाया, दोनों को योग्य उपालम्भ दिया और दोनों को चले जानेका फरमान दिया । मुनि भी अपनी भूल समझ गये, मन्त्री भी अपनी भूल समझ गया और जैन शासनकी निन्दा भी होते होते अटक गई। इस प्रकार की चिन्ता करनेवाले श्रावकों को शास्त्रकारोंने मात पिताके.समान कहा है। तुम तुम्हारे घरमें तुम्हारी