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________________ प्रवचनसार कर्णिका. मा में रोजगुटिकाची वठे तव थे। एक समय अकाल पड़ा। नगरी में एक. आचार्य महाराज दो साधुओं के साथ एक गये थे उन्होंने दूसरे साधुओं को विहार करा दिया साथ के दोनों साधु, माधुकरी सिक्षा को गये । परन्तु दुष्काल तीव्र होने से मिक्षा नहीं मिली। इसलिये दोनों साधु विद्या का उपयोग करते हैं । उन साधु के पास एक अदृश्य गमन गुटिकाथी। उस गुटिका का अंजन आँखों में रोज आंजकर जव राजा जीमने को वैठे तव वहां वे साधु अंजन के प्रभाव से अदृश्य होकर भोजन ले लेते थे। एक दिन राजा का रसोइया पूछता है कि महाराज, आप दुबले क्यों दिखाते हो । आप रोज भोजन थोडीवार में जल्दी ही कर लेते हो । उसका क्या कारण ? एक समय मन्त्रीश्वरने भी राजा से पूछा कि हे राजन् । आप प्रतिदिन सुकाते क्यों जाते हो। क्या कारण है? तव राजा कहता है कि हे मन्त्रीश्वर जव में रोज भोजन करने वैठता हूं तो मेरे थालमें से कोई अदृश्य रीते भोजन लें जाता है । इसलिये मैं भूख रहता हूं। और दूसरी वक्त मांग भी नहीं पाता हूं। अव करना क्या? मन्त्रीश्वर ने युक्ति रची। जिस स्थान पर राजा भोजन करने वैठता था वहां अंजन विछा दिया। अब वे दोनो मुनि भी अदृश्य होकर प्रतिदिन की तरह वहां आये। वहां आने के साथ में ही उनके चरण काजल में पड़ गये। चरणों को देखकर ही मन्त्रीश्वर ने धुआं चालू किया । घुआंसे मुनियों की आंखमें से लगा हुआ अंजन निकलजाने से मुनि दृष्टि गोचर हो गये । मुनियों को देखने के साथ ही राजा लालचोल यानी खूव क्रोधायमान हो गया । और कहने लगा अरे साधुओ, तुम इस मुनिवेशमें भोजन की चोरी + - -
SR No.010727
Book TitlePravachan Ganga yane Pravachan Sara Karnika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvansuri
PublisherVijaybhuvansuri Gyanmandir Ahmedabad
Publication Year
Total Pages499
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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