SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वे यह भी देखते है कि अनेक व्यक्ति जो कल उनके समान थे, विद्याके कारण दिन दिन धन और सन्मानमें उनसे आगे बढते चले जाते हैं। इसलिए वे भी सोचते हैं कि जिस लाभसे अर्थात् शिक्षासे हम वंचित रहे हैं, हमारी सन्तान उससे वंचित न रहे । उनको आशा है कि विद्याकी कृपासे हमारे पुत्र भी जगतरूप नाटकशालामे बहुतोंको धकेल कर आगे बढ जावेंगे। इसी कारण जब शिक्षासे कोई यथोचित आर्थिक लाभ नहीं होता तो ऐसे मातापिताओंको जो निराशा होती है वह स्वाभाविक है और इस कारण उनपर दूषण लगाना और उनको तुच्छ स्वार्थी कहना असभ्यता ही नहीं किन्तु मूर्खता भी है। अतएव प्रत्येक विद्यार्थीका कर्तव्य है कि यदि उसके कुटुम्बका पालनपोषण उसपर निर्भर है और मातापिताको उसी सहारेकी आशा है, तो जिस योग्य रीतिसे हो सके उनका और अपना निर्वाह करनेका उद्योग करे। इसके सिवा यह कहना भी ठीक है कि प्रत्येक व्यक्तिकी आर्थिक उन्नतिसे सम्पूर्ण समाजकी उन्नति होती है । यद्यपि आजीविकाकी खोज करना उसका कर्तव्य है किन्तु विद्यार्थी होनेके कारण केवल धन प्राप्त करने अथवा आजीविकाकी खोज करनेको जीवनका उद्देश्य बनाना विद्यार्थीका ही नहीं किन्तु मनुष्यका भी अनादर है। विचार कीजिए कि आजकल जगत्में विद्याका कितना आन्दोलन है। कितने शास्त्रोंकी प्रतिदिन रचना होती है। कौन कौनसे सिद्धान्तोंका महत्व स्थापित होता जाता है। यदि इन तमाम बातोंका कारण धनप्राप्ति ही है तो धिक्कार है ! उस विद्यार्थीकी दशा शोचनीय है जो माघ और काग्दिासके ग्रयोंका अवलोकन करता है, सादी अथवा उमरख्यामके उच्च विचारोंको दृष्टिके सामने रखता है, शेक्सपियरके नाटकों मिल्टनकी ओजस्विनी कविताओं, अकलातून और केंटके सिद्धातोंसे
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy