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विकालतके लिए पढता है, दूसरा डाक्टरीके लिए, तीसरा अध्यापकांके लिए, चौथा जाँदारीका प्रबन्ध करना चाहता है, पाँचवाँ अपनी शिक्षासे व्यापार में लाभ उठाना चाहता है। ऐसे ही और बहुतसे काम हैं । जनसाधारणका यही विचार है कि विद्यार्थीके जीवनका यही उद्देश्य है कि वह अधिक धन और मान प्राप्त करे । यह उद्देश्य प्रारम्भसे विद्यार्थीके इतना सन्मुख नहीं रहता जितना उसके माता पिताके।
अब प्रश्न यह है कि आजीविकाका प्राप्त करना विद्यार्थीके जीवनका उद्देश्य होना चाहिए या नहीं ?
इसमें संदेह नहीं कि विद्यार्थीको पढते समय यह खयाल बहुत कम होता है कि जो कुछ मै पढ़ता हूँ अथवा सीखता सोचता या लिखता हूँ उसका असली अभिप्राय यह है कि मेरे घर इतना सोना चॉदी हो जाए अथवा इतना माल असबाब जमा हो जाए; परन्तु मातापिताके दिलोंमें इसका विचार शुरूसे मौजूद रहता है । इसका कारण यह नहीं कि वे स्वार्थी अथवा लोभी है। सम्भव है कि किसी दशामें यह बात हो; किंतु प्रायः ऐसा होता है कि जवान बूढोंकी अपेक्षा, पुरुष स्त्रियोंकी अपेक्षा और धनवान निर्धनोकी अपेक्षा अधिक स्वार्थी होते है और अपने थोड़े सुखके लिए दूसरोंके अधिक सुखकी कुछ परवा नहीं करते। किन्तु इसका कारण यह हैं कि उन्होंने संसारमे अत्यंत शोकप्रद अनुभवके पश्चात् रुपयेका मूल्य और सासारिक धनकी आवश्यकताको समझा है | वे जानते है कि सबसे ज्यादह जरूरी चीज दौलत । है इसके विना क्या विद्या, क्या धर्म, क्या उत्तम विचार, क्या शुभ संकल्प सब तुच्छ है।