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________________ जब कामों में हानि पर हानि होती है, उद्योग और परिश्रम अपना फल नहीं दिखाते या यह कि मनुष्य ऐसी बातोंके लिए उद्योग करता है जिनका प्राप्त करना सम्भव नहीं, तो अपनी शक्ति और मानवी बुद्धि पर भरोसा कम होते होते उसको इस बातका श्रद्धान हो जाता है कि मनुष्य एक कलके समान है। अपनी ओरसे अधिक उद्योग और परिश्रम करना व्यर्थ है । वह भाग्यका उपासक होकर एकान्तवास करने लगता है और या तो जीवनकी कठिनाईयोको सतोषपूर्वक सहन करता है या भाग्यको उलहना देता है। उद्योग और परिश्रम उसके लिए ऐसे शब्द हैं जिनका मनुष्यसे कुछ सम्बन्ध नहीं । जब यह विचार जातिके उच्च पुरुषोके दिलोंपर अधिकार कर लेता है तब लोगोंकी मानसिक और मस्तकसम्बन्धी उन्नतिमे शिथिलता पैदा हो जाती है । जीवनकी घटनाओसे उन्हें कुछ रुचि नहीं रहती । संसारसे उनको इतना भी सम्बन्ध नहीं रहता जितना ज्योतिषियोका तारागणके भ्रमणसे रहता है। यदि पूर्ण उद्योग करने पर भी निराशा हो जाती है तो उत्तम मनुष्य तो एक प्रकारकी निद्रामे अचेत रहते है-उनका दूसरों पर . कुछ असर नहीं पडता और यदि पड़ता है तो केवल इतना ही कि और लोग भी उनके समान ध्यानस्थ होना चाहते हैं। हॉ, साधारण मनुष्य जो न तो तत्त्वज्ञानी हैं और न जगतके रहस्यसे परिचित है. संसारिक कार्यों में लगे रहते है और उनकी दूरदर्शिता और उनका साहस जो कुछ हो केवल इतना ही है कि जो कुछ उनके बापदादा करते आए है धीरे धीरे अवकाश मिलने पर उन्हीं कामोंको किए जाएँ। जगतकी गतिको वे स्थिर समझते हैं । बुराई, भलाई, पुण्य, पाप, धर्म, अधर्म आदि उनकी सब चीजे एक स्थान पर खड़ी रहती हैं । अंतर
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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