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पूर्ण फलप्रद होगा। हमें इस बातका अच्छी तरहसे विचार कर लेना चाहिए कि जिस समय भारतवर्ष अपनी निजी शिक्षा देता था उस समय उसने मनुष्यका मन किस तरह पाया था। विदेशी यूनिवर्सिटियोंके क्यालेण्डर खोलके, उनका रस बाहर करनेके लिए उनपर , पेन्सिलके दाग लगानेसे हम आपको मना नहीं करना चाहते; परन्तु
साथ ही यह अवश्य कहे देते हैं कि यह विचार भी उपेक्षा या उदासीनताका विषय नहीं है। विद्यालयोंमें क्या सिखाना चाहिए, यह बात भी विचारणीय अवश्य है; परन्तु जिन्हें सिखाना है उनके मन किस तरह पाये जा सकते हैं, यह उससे भी अधिक विचारणीय है।
भारतवर्षके गुरुगृह एक समय तपोवनोंमें थे। अवश्य ही इस समय उन तपोवनोंका स्पष्ट चित्र हमारे मनमें नहीं उठता-वह अनेक अलौकिकताओंके कुहासेसे छुप गया है, तो भी इसमें सन्देह नहीं कि किसी समय उनका अस्तित्व अवश्य था।
जिस समय उक्त आश्रम थे उस समय उनका वास्तविक स्वरूप क्या था, इस विषयको लेकर हम तर्क नहीं करना चाहते और कर भी नहीं सकते । परन्तु यह निश्चय है कि इन आश्रमोंमें जो लोग निवास करते थे, वे गृही थे और उनके शिष्य सन्तानके समान उनकी सेवा करके उनसे विद्या प्राप्त करते थे। - से हमारे देशकी कहीं कहींकी विशेष कर बंगालकी पुरानी सस्कृत
पाठशालाओंमें ( टोलोंमें) आज भी उक्त भाव थोड़े बहुत अंशोमें ___ दिखलाई देता है।
इन पाठशालाओंपर दृष्टि डालनेसे मालूम होता है कि उनमे केवल पोथियाँ पढ़ना, ही सबसे अधिक महत्त्वकी बात नहीं है-वहाँ चारों ही ओर अध्ययन अध्यापनकी हवा बहती है। स्वयं गुरु भी वहाँ पढ़ना