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हमारे लिए बड़ी भारी कठिनाई यह है कि हम अगरेजी विद्या और विद्यालयोंके साथ साथ अंगरेजी समाजको अर्थात् वहाँकी विद्या और विद्यालयोंको यथास्थान नहीं देखने पाते । हम इसे सजीव लोकालयके साथ मिश्रित करके नहीं जानते । और इसीसे हम यह भी नहीं जानते कि विलायती विद्यालयोंके प्रतिरूप जो हमारे देशके विद्यालय हैं उन्हें अपने जीवनके साथ किस तरह मिला लेना होगा;
और यह जानना ही सबसे अधिक प्रयोजनीय है । विलायतके किस कालेजमें कौनसी पुस्तक पढ़ाई जाती है और उसके नियम क्या हैं, इन बातोंको लेकर तर्कवितर्क करते हुए कालक्षेप करना ठीक नहीं इससे समयका दुरुपयोग होता है।
इस विषयमें हमारी हड्डियोंके भीतर एक अन्धविश्वास घुस गया है। जिस तरह तिब्बतनिवासी समझते है कि किसी मनुष्यको किरायेसे लेकर उसके द्वारा एक मन्त्रलिखित चक्र चलवा देनेसे ही पुण्यलाभ हो जाता है, उसी तरह हम भी समझते हैं कि किसी तरह एक सभा स्थापित करके यदि वह एक कमेटीक द्वारा चलाई जा सके, तो बस हमें फलकी प्राप्ति हो जायगी। मानो सभा स्थापन कर लेना ही एक बड़ा भारी लाभ है। कई वर्ष वीत गये, हमने एक विज्ञानसभा स्थापित कर रक्खी है। तबसे हम बराबर प्रतिवर्ष विलाप करते आ रहे हैं कि देशवासी विज्ञानशिक्षासे उदासीन हैं। किन्तु विज्ञानसभा स्थापित करना एक बात है और देशवासियोंके चित्तको विज्ञानशिक्षाकी
ओर आकर्षित करना दूसरी बात है । सभास्थलमें कूद-पड़ते ही लोग विज्ञानी हो जावेंगे, ऐसा समझना इस घोर कलियुगकी कलनिष्ठाका परिचय देना है। ।
असली बात यह है कि हमें मनुष्य के मनको पाना चाहिए। जब हम उसे पालेंगे तब ही हम जो कुछ आयोजन या उद्योग करेंगे वह