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लिखना लिए वैठे रहते है। केवल इतना ही नहीं, वहाँ जीवनयात्रा बिलकुल ही साधीसादी रहती है; धनदौलत, विलासिताकी खेचतान नहीं है और इस लिए वहाँ शिक्षा एक साथ स्वभावके साथ मिल जानेका समय और सुभीता पा लेती है। पर इस कहनेसे हमारा यह मतलब नहीं है कि यूरोपके बड़े बड़े विद्यालयोंमें भी यह, शिक्षाका स्वभावके साथ मिल जानेका भाव नहीं है।
प्राचीन भारतवर्षका यह सिद्धान्त था कि अध्ययन करनेका जितना समय है उतने समयतक विद्यार्थीको ब्रह्मचर्य पालन करना चाहिए और गुरुगृहमें निवास करना चाहिए।
जो ससारके बीच रहते हैं वे ठीक स्वभावके मार्गपर नहीं चल सकते । तरह तरहके लोगोंके सघातमें नाना दिशाओंसे नाना लहरें आकर जब तब बिना जरूरत ही उन्हें चञ्चल किया करती हैजिस समय हृदयकी वृत्तियाँ भ्रूण अवस्थामें रहती है उस समय वे कृत्रिम आघातोंसे बिना समयके ही उत्पन्न हो जाती हैं। इससे शक्तिका बड़ा भारी अपव्यय होता है और मन दुर्बल तथा लक्ष्यभ्रष्ट हो जाता है । इस लिए जीवनके आरम्भकालमें स्वभावको विकारोंके सारे कृत्रिम कारणोंसे बचाके रखना बहुत ही आवश्यक है। प्रवृत्तियाँ असमयमें ही न जाग उठे और विलासिताकी उग्र उत्तेजनासे मनुष्यत्वकी नवोद्गम अवस्था झुलस न जावे-वह स्निग्ध और सजीव बनी रहे, यही ब्रह्मचर्यपालनका उद्देश्य है । वास्तवमें देखा जाय तो बालकोका इस स्वाभाविक नियमके भीतर रहना उनके लिए सुखकर है। क्योंकि इससे उनके मनुष्यत्वका पूर्ण विकाश होता है, इससे ही वे जैसी चाहिए वैसी स्वाधीनताका आनन्द भोग सकते हैं और इससे उनका वह निर्मल और उज्ज्वल मन-जो कि उसी समय अकुरित होता है-उनके सारे शरीरमें प्रकाशका विस्तार करता है।